गरीबी : एक अभिशाप
गरीबी : एक अभिशाप
मैंने उसको दर-दर पर
गिरते झुकते देखा है।
दो सिक्कों के लिए उसको
गिरवीं रखते देखा है।
चाहत है बस दो रोटी की
करता सबसे मिन्नत है।
कभी-कभी उन रोटी की भी
रहती फिर भी किल्लत है।
तन पर कपड़े कम हैं उसके
अब मन में ख्वाव हुए कम हैं।
दो मुठ्ठी को हाथ पसारे
दुबला पतला हुआ बदन है।
जीर्ण-शीर्ण है सूरत उसकी
हड्डी-हड्डी तन को जकड़े।
गठरी एक रखी है सिर पर
निकल पड़ा जीवन को पकड़े।
पेट भूख से तड़प रहा है
पानी पी-पी लोट रहा है।
घोर तिमिर में रह-रह कर
जीवन अपना काट रहा है।
सुख की बस तस्वीर बनाकर
सपनों में रख लेता है।
भोर में उठकर तोड़ सपन को
मन ही मन रो लेता है।
निकले सूरज बहुत गगन में
पर उस तक एक किरण न आयी।
बड़े-बड़े भूखे बाघों ने
मिली हुई सब दौलत खायी।
चलता है वो रोज नदी सा
हर पल घाट बदलता है।
जले न दीपक अगर रात में
खुद दीपक बन जलता है।
अगर हटा ले कंधे अपने
कोई बोझ न सह पायेगा।
झुका अगर ले अपने कर को
सकल राष्ट्र फिर झुक जायेगा।
अब उसको हर दो डग पर
थकते मैंने देखा है।
मैंने उसको दर-दर पर
गिरते झुकते देखा है।
बीमार पड़ा है फिर भी उसको
बोझ उठाते देखा है।
थके हार कर काम किया पर
खाली हाथों देखा है।
उसने सबके बना घर दिए
पर रोज उजड़ते देखा है।
कभी यहाँ तो कभी वहां पर
चलते फिरते देखा है।
सारी उमर कमाई रोटी
ज़रा में भूखा सोता है।
अपनी उजड़ी व्यथा देखकर
बाहें भर-भर रोता है।
जीवन के अंतिम पड़ाव पर
कोई साथ न देता है।
जो भी था वो बेच दिया
फिर भी पेट न भरता है।
कल उसने अपने मालिक से
कुछ पैसे उधर लिए |
उन पैसे के बदले उसने
देर रात तक काम किया।
सुबह उठा तो उसके अंदर
एक अजीब सी जकड़न थी।
पुरवाई घावों को बल देती
अस्थि अस्थि में अकड़न थी।
फिर डरकर वो गया न काम पर
रह गया कुछ सोच-सोच कर।
एक सवेरे चुपचाप अकेले
निकल गया वो अंतिम पढ़ाव पर।
मरे तो उसकी कोई फ़िक्र न
जिए तो क़द्र न कोई करता है।
एक कफ़न और दो गज में
दफ़न न कोई करता है।
राह किनारे पड़े शवों का
अंत वहीं हो जाता है।
कभी-कभी फिर कोई मानुष
क्रिया कर्म करवाता है।
मैंने उसको दर-दर पर
गिरते झुकते देखा है।
दो सिक्कों के लिए उसको
गिरवीं रखते देखा है।