ज़िन्दगी की कश्मकश
ज़िन्दगी की कश्मकश
जिंदगी की कश्मकश में ऐसे डूबे,
कि उबर ही न पाए।
चंद सितारों के लिए ऐसे दौड़े कि,
रुक ही ना पाए।
ऐसा नहीं है कि दिल तड़पा नहीं पर,
जरूरतों के आगे मेरी एक न चली।
सोचा मैं, कि रुक कर सोचूं पर,
तब तक जिंदगी ने उजाड़ दी बचपन की प्यारी कली |
मैंने भी संजोये थे सपने बहुत पर,
बिखरे हुए आइनों में तस्वीर कहाँ मिलने वाली थी |
टूटे हुए सपनों के जख्म गहरे थे पर,
उनसे पेट की आग कहाँ मिटने वाली थी।
बढ़ गया आगे, कुछ आगे की ही सोचकर,
कराहा, चिल्लाया फिर रह गया सिसककर।
टूटते सपनो को कोई सहारा दे न सका,
हाथ बढ़ाया था पर किनारा कोई मिल ना सका।
मैं आगे बढ़ता चलता गया और,
सपने पीछे छूटते चले गए।
और फिर एक दिन ऐसा आ गया जब,
सपने भी सपने से हो गए।
मैं तो निकला था कुछ और करने,
पर नियति को कुछ और ही मंजूर था।
मैं था मासूम और सच्चा मगर,
वक्त ने मुझे दोजख़ का सिरताज बना दिया।
अब मैंने कुछ पा लिया है पर,
सपनों की ख्वाइशों के बगैर।
ऐसी जिंदगी जीने का मतलब कम,
जिसमें मतलबी दुनियां है और हैं गैर।
जो मेरी प्यारी सी जिंदगी पीछे छूट गयी ,
मैं उसे फिर से जीना चाहता हूँ।
हर एक मन्नत, इबादत और दुआ मैं,
यही एक फरियाद करता हूँ
पर क्या मैं यही सोच कर परेशां रहूं,
ये तो जिंदगी का दस्तूर नहीं है
जिंदगी में हर एक ख्वाहिश पूरी हो,
ये तो हर बार जरूरी नहीं है।
जो बीत गया क्या उसे पाकर हम खुश होंगे ?
शायद नहीं
हर वक्त की ख्वाहिश और
जरूरत अलग- अलग होती है।
जो बीत गया उसे पाकर
कुछ सीख सकते हैं ?
शायद हाँ,
जी भर जिओ एकलौती जिंदगी है।