सिक्के हैं हम
सिक्के हैं हम
सिक्के हैं हम ….
हाँ हम भी खनकते सिक्के हैं
उसके ख़ज़ाने के ….
खर्चने को अपने सिक्के …
भेज दिया उसने हमे…
दुनिया के बाज़ार में …
एक तरफ़ एक चेहरा दिया …
दूजी तरफ़ लिख दी क़ीमत हमारी
कर्म के पिटारे से ….
बना के इसे ..की है दुकानदारी
हमारा जीवन बिलकुल ऐसा है
दो रूप में जीते हैं हम …
अनजान इस के मतलब से
बस ना समझाया किसी ने
ना समझ पाए हम वैसा
एक तरफ़ था चेहरा बना
दूजी तरफ़ था नंबर ख़ुदा
लिखी थी उसने ये पाती
कितनी क़ीमत है हमारी
खर्च करना ज़रा सम्भाल के
आज ये एहसास हुआ
बस यूँ ही चलते चलते …
ये पल जो जिए मैंने
बचपन के वो दिन थे …
बड़े महँगे …
फिर आगे निकल आये हम
हर ख़ुशी के पल और ग़म के आंसू सहते सहते ….
खर्च कर ली ज़िंदगी यूँ
जिसने हंसते हंसते किए कर्म उसको लगी मनभावन
जो रोता रहा कुछ ना किया
उसकी क्या कहे …
ना ख़ुद समझ सका ..
ना उस ऊपर वाले
के बस का था समझाना…यशवी
कितने पड़ाव निकल गये
कितने रह गये बाक़ी …
शायद यही है वो नंबर ….
जो लिखा यशवी …. उसने
चेहरे के साथ …. उम्र की पाती
हाँ हम …..
बिलकुल सिक्के के जैसे हैं
हाँ हम उसके हाथों के सिक्के हैं
बोलते हैं ,हंसते हैं ,रोते हैं …
खनकते ही तो है
सिक्को के जैसे हैं …
जो लिखा है ….
वो उम्र का ज़िक्र है …
कोई छूट ना जाए …. कोई गलती ना हो जाए ….. उस से कभी
सब याद रखना है उसे …
उस को ….
अपने बनाए इंसान की फ़िक्र है …
हम सिक्के उसके हाथों के
हमे खर्च करने की क़ीमत
लिख के उसने हमे बनाया है ….
ये राज़ उसी का था ..
ये शब्द उसी के थे …
जिसे मैंने जाना …… यशवी
और उसने समझाया है ….
