अब सच कहना इतना आसान तो नहीं रहा
अब सच कहना इतना आसान तो नहीं रहा
अब सच में ! सच कहना इतना आसान तो नहीं रहा !
तो भला सच कहने की नौबत कौन अपने सर उठाये ?
कौन पड़े सच कहने की मुसीबत में ?
सच का नाम सुनते ही ज़माना मूक हो जाता है !
और ज़माने के लोग बहरे !
गर गलती से मुख से सच निकल भी जाये और कानों में पड़ भी जाये !
तो क्या दुनिया सच में ही सच को पचा पायेगी भी ?
इस सच में भी संशय है !
इसलिए दुनिया एक सच को भी मिर्च- मसाले के साथ चटपटा बनाकर बनाकर लोगों के सामने पेश कर देती है ।
सुनकर चखने में इसका स्वाद तो बहुत ही सुमधुर होता है ।
लेकिन अंदर- ही- अंदर हमारी सेहत को सोखकर खोखला कर रहा होता है ।
ज़माने के इस रवैये को देखकर सच में ये बात ज़ेहन में घर कर गई है कि -
अब सच में ! सच को कहना इतना आसान तो नहीं रहा !
मगर सच के सिवा बचा ही क्या कुछ जो कहा जा सकता है ?
क्योंकि झूठ तो कुछ होता ही नहीं !
सिवाय सच के ।
चूँकि झूठ भी तो एक सच ही है ।
हाँ ! ये सच ही तो है ।
एक मनगढ़ंत सच , जो छलावे से प्रेरित काल्पनिक सच है ।
जिससे दाँव साधने की बदबू आती है ।