आवाज़ की खामोशी
आवाज़ की खामोशी
हवा में लहरे चंचल चितवन नन्हीं मन की ऊँची उड़ाने
पैरों में रिवाजों की जकड़न पसरी आवाज़ की खामोशी
थोड़ी तुनकमिजाज थोडी खट्टी आकाश को तकती निगाहें
बहू बन बेटी बन पूरी की समाज की सुनी हर खरी खोटी
ऊँचे स्वर न गूँज पाएगी वो, न बनेगी उसकी सखी कोई सहेली
ये घर पराया वो घर पति का मौन हो रही मन की अनुभूति
जिम्मेदारी का निर्वाह करती संभाला हुआ माला का हर मनका
महफ़ूज़ खुद को रखने को दुनिया से बोलती नहीं वो है स्त्री
सागर बन वो सैलाब उमड़ेगा दूर होगी लबों की खामोशी रस्मों का अंधेरा
एक दिन वो दिन भी आयेगा जब रोशन होगा आवाज़-ए- सुरूर सरफरोशी।
