आत्ममंथन
आत्ममंथन
जब तक चित्त में रहता लालच,
पलते ईर्ष्या और स्वार्थ।
मन को शान्ति नहीं मिलती है,
कर लें कितने भी परमार्थ।।
जान के भी अनजान बने,
और करते व्यर्थ विधान।
पाप पुण्य का नहीं कोई मतलब,
जब कर न सके सम्मान।।
धुन्ध जो छायी सोच पर,
और आईने रगड़ते रह गये।
खुद भागते संकटों से,
औरों को परखते रह गये।।
है मिला तन मनुष्य का,
कुछ कार्य ऐसे कीजिए।
तन और मन की शांति का,
एक घूँट ऐसा पीजिए।।
दर्द और कटु अनुभवों की,
स्मृति को क्षीण कर।
उपकार और सहयोग की,
भावना को सींचकर।।
जीवन सफल हो जायेगा,
हैं आत्म मंथन जो किये।
संबंध हर जुड़ जायेगा,
यदि मृदु कंठ जो अपना लिये।।