नहीं चाहती मैं
नहीं चाहती मैं
नहीं चाहती मैं बनना पुतला मोम का
जो पिघल जाती है चंद सांसों की गर्मी से।
नहीं चाहती मैं बनना पत्थर मंदिर का
जो छूकर देवी बन जाती है भक्तों की मर्जी से।
नहीं चाहती मैं बनना प्यार मुमताज का
जो ताज में दफन याद बन जाती है हमदर्दी से।
नहीं चाहती मैं बनना सलवट बिस्तर का
जो झाड़ दी जाती है कुटिल मुस्कान व बेशर्मी से।
नहीं चाहती मैं बनना फूल गुलाब का
जो मसल दिया जाता है चंद ठेकेदारों की बेगैरत से।
नहीं चाहती मैं बनना साज श्रृंगार लुभाने का
जो उतरकर आईने में मिला देता है हकीकत से।