उन्मुक्त परिंदे
उन्मुक्त परिंदे
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ये परिंदे भी ना,
कितना ही उड़ लें
आसमान की ऊँचाइयों में,
आखिर लौट ही आते हैं
जमीं पर उल्टे पाँव।
जब कुलबुलाने लगती हैं
आँते भूख से,
और सूखने लगता है
कंठ प्यास से,
ये उन्मुक्त परिंदे....
लौट आते हैं ढूँढने छाँव
चिलचिलाती धूप में,
उड़ते-उड़ते..
शिथिल पड़ जाते हैं पंख,
पस्त होने लगते हैं हौंसले
घूमकर सारा जहाँ,
तो लौट आते हैं अपने नीड़ों पर।
ये उन्मुक्त परिंदे....
कितना भी उड़ लें
आखिर लौट ही आते हैं
फिर अपनी जमीं पर,
अपनों से मिलने,अपनों के साथ।
ये उन्मुक्त परिंदे।।
