आत्मा
आत्मा
कर विकल मेरी आत्मा, तुम चैन से सोते रहे
टूटी हुई माला के मोती, हम रात भर पिरोते रहे
कशमकश की बेड़ियों में, क्यूं बंधा था मन मेरा
नयन अब भी सूखे थे, फिर भाव क्यूं रोते रहे
मौन थी शब्दों की वाणी, बस आत्मा कहती रही
सूखे पड़े सब रास्तों पर, बस भावना बहती रही
अक्स पर न चिह्न थे, की कभी ग़म आए थे
पतझड़ में सूखे पत्तों सी, बस वेदना झरती रही।
