आत्म समर्पण
आत्म समर्पण
भटका मैं दर दर पर वो सुकून मेरी आत्मा को ना मिला,
पहुंचा हर मंदिर हर मस्ज़िद पर कहीं खुदा ना मिला,।।
कोरे पन्नो पर मैने एक रोज़ अपने जज़्बात उतारे थे,
पन्नो की दहलीज पर वो हालात उतारे थे,
उन यादों ने मेरी आत्मा को दुखाया था,
जो महज दर्द दे शायद वो रिश्ता ही खोखला था,।।
भटका मैं दर दर पर वो सुकून मेरी आत्मा को ना मिला,
पहुंचा हर मंदिर हर मज्जिद पर कही खुदा ना मिला,।।
मेरे आसूं देख कर भी वो खुदा ख़ामोश है,
क्यूं आज कल शाम अजीब से सवाल करती है और रात ख़ामोश है,
अपना सब कुछ जिस पर वार दिया वो अपना ना जाने कब अजनबी हो गया,
देखते देखते रिश्ता वो एहसास सब ओझल हो गया,।।
भटका मैं दर दर पर वो सुकून मेरी आत्मा को ना मिला,
पहुंचा हर मंदिर हर मज्जिद पर कही खुदा ना मिला,।।
वक्त की गलियों में यादें हर मोड़ पर ठहरी मिली,
एक किताब में उसकी वो आखरी चिट्ठी मिली,
उसे पढ़कर मानो आत्मा भी रो उठी,
वो सिहायी मानो आज कालिख सी लगी,।।
भटका मैं दर दर पर वो सुकून मेरी आत्मा को ना मिला,
पहुंचा हर मंदिर हर मज्जिद पर कही खुदा ना मिला,।।
बन बैठा बंजारा एक जोग मैने ले लिया,
यादें पोठली में भर कर अपना सब कुछ मैने गवा दिया,
नंगे इन पैरो पर कंकर की दी चोट है,
कहीं तो उसकी आहट आज भी है,।।
