आत्म मंथन
आत्म मंथन
मानुष जीता रहता बस एक जीवन,
पर तय सब कुछ करते उसके दो मन,
विपरीत दिशाओं में दौड़ लगाते,
द्वन्द्व निभाते रहते...अंतर्मन और बहिर्मन,
निशदिन जिनमें रहता गृहयुद्ध छिड़ा!
अंतर्मन जब कभी ध्यानमग्न होकर,
सत्कर्म की राह ओर ले जाता,
तो बहिर्मन ध्यान भटकाने को,
सिंह बन उसके पौरुष को ललकारता!
जब कभी बहिर्मन मायूसी को ढोता,
ज़िन्दगी से थककर फिर हताश होता,
अंतर्मन ताकत से...आवेगों से टकराता,
फिर ध्यानमग्न होकर खुद को तराशता,
आत्मबल को मज़बूत कर वो संभल पाता,
बड़ी तन्मयता से एकांत में कभी बैठकर,
अपनी जिजीविषा को बलवती कर पाता,
बहिर्मन विमुखता का मार्ग दिखाता है,
जबकि अवचेतन मन से पोषित वो होता,
कहाँ अंतर्मन की उन्मुखता को समझ पता,
गुण-अवगुण की फेहरिस्त बनाते बनाते,
फिर एकाग्र मन दोनों में समन्वय बैठा पाता,
निचोड़ क्या होगा उससे अनभिज्ञ हैं मानुष,
ये पीड़ा ही जब आत्मिक उत्थान से जुड़ी,
पूर्ण मनोयोग से जिसने जीवन साध लिया,
वही दृढ़ निश्चयी होकर विपत्तियों से लड़ा है,
तल्लीनता से ही जीव कर्म क्षेत्र में खड़ा है,
एकाग्रता कोई योग नहीं अपितु कला है,
जिसने पा लिया एकाग्रता रुपी शक्ति पुंज,
वो शांत जीव हर किरदार में फूला-फला है!
