आशा पिघल रही है
आशा पिघल रही है
अपने देश की परिभाषा अब
धीरे-धीरे बदल रही है ।
हक पहले था करो खिलाफत
सत्ता के इस मनमानी की
आज नही रह गई यहाँ कुछ
सीमा कुछ बेईमानी की
ताकतवर यूं हुई बुराई
अच्छाई को निगल रही है ।
धर्म कभी जब राजनीति पर
अपना वर्चस्व बढ़ाती है
लोकतन्त्र को बना अपाहिज
यह मनमानी करवाती है
मंचो पर भी देखा अक्सर
नीयत सब की फिसल रही है ।
मँहगाई छू रही गगन को
मुश्किल से हो रहा गुजारा
कमर तोड़ दी पाँच साल में
मिली चोट पर चोट दुबारा
रोजगार छिन गया करोड़ो
बैठी आशा पिघल रही है ।