आक्रोश
आक्रोश
एक कोलाहल थमता नहीं
दूसरा आकर तन-मन को
शिथिल कर देता है ...
संज्ञाशून्य हो जाती है चेतना
बार-बार मन को यही आक्रोश
मथने लगता है,
आखिर कब तक जलेगी
संसार की निर्मात्री नारी,
कब थमेगी नृशंषता,
कब हमें बेबस चीख द्रवित करेगी,
कब इंसान जानवर से इंसान बनेगा ,
कब तक केंडल मार्च निकालकर
मन को सांत्वना देते रहेंगे ?
उत्तर है किसी के पास !!
चुप रहकर, आँख मूंद कर
क्या हम स्वयं नृशंषता के
भागीदार नहीं बन रहे हैं ?
एक आवाज़ नहीं,
हजारों आवाज़ चाहिए
अपराधी को कटघरे तक
पहुंचाने के लिये...
मौत के बदले सिर्फ मौत
इससे कम कुछ नहीं !!