आखिर कब तक?
आखिर कब तक?
बेचैनी दिखती थी चेहरे पर उसके साफ,
फिर भी चुप थी उसकी ज़ुबान,
बयां नहीं कर पाती थी दर्द-ए- दिल का हाल,
जो चेहरा रहता था शगुफ्ता,
पड़े थे उस पर कई बर्बरता के निशान,
थी एक सोन चिरैया सय्याद की जकड़ में बहुत परेशान,
बर्बरता की हद हो चुकी थी पार,
अब नहीं बचे थे दिल में उसके जीने के अरमान,
कई रस्मों - रिवाजों का डालकर भार,
बाधित कर दी थी उसकी उड़ान,
फिर भी चुप थी उसकी ज़ुबान,
यह कैसी चुप्पी थी उसकी, देख कर थे सब परेशान,
कभी बाबा की पगड़ी का ख्याल,
तो कभी क
ुल की मर्यादाएं बांध देती थी उसकी ज़ुबान,
आई एक दिन नन्ही किरण, जिसने दी उसको शक्ति तमाम,
नन्ही किलकारी ने याद दिला दिया उसको उसका स्वाभिमान,
दफ़न था जो दिल में दर्द, उमड़ा बनकर एक सैलाब,
नहीं सहन करेगी बर्बरता की, अब कोई नई दास्तान,
आज़ाद हो उस सय्याद की जकड़ से,
उसे चाहिए अब उन्मुक्त आकाश,
जिस पर लिख दें अपने सतरंगी वह अरमान,
जुबां ने खोले सारे ताले, दिखाकर आंख लाल,
आज़ाद हुई फिर एक सोन चिरैया बनकर महान,
लेकर आंचल में नन्ही सी जान,
निकल गई लिखने अपना नया वर्तमान।।