आज फिर लिखने बैठ गई
आज फिर लिखने बैठ गई
आज फिर डायरी का एक पन्ना लिखने बैठ गई,
मत पूछ ए जिन्दगी कि कितनी ही यादों में उलझतीं चली गई।
ना मैं कुछ लिख पा रही थी ना ही कलम चली,
कम्बख़त उसकी इतनी यादें थी जिया को झकझोरतीं चली गई।
शब्द अनगिनत सामने ही तो मुस्कुरा रहे थे पर मैं उनकी भाषा को समझ न सकी,
याद आते ही उसकी मुस्कराहट मैं बस यूं ही खोती चली गई।
गुनगुनाती हुई उसकी वो आवाज़ पर मैं लय बन न सकी,
कितने ही नगमे उसने गुनगुनाए पर मै उसके दर्द को चाहकर भी बांट न सकी।
हर दिन एक जुनून बढ़ता चला गया और मै बेफिक्र सी होती चली गई,
अनगिनत अनसुलझे से उसके वादों में खुद को उलझाती चली गई।
यूं चले जाना उसका अक्सर ही मुझे रूला गया और मैं बस आंसू बहा कर रह गई,
ना वो रूकना चाहता था और ना ही मैं उसे रोक सकी।
कैसी नियती का खेल है हर बार ही दोहरा गई,
ये कमबख्त समुद्र की लहरें भी हम दोनों का नाम जुदा कर चली गई।
बरसात की बूंदे भी आज इक आग सी लगा चली,
देखकर उसकी चंचलता देखो बस मैं मुस्कुरा कर रह गई।
नींद अक्सर धोखा देने लगी है क्यों कि ख्याबो में मुलाकात नहीं,
क्या और कैसे लिखूं पन्नों पर तेरी हर बात अब फिर चल पड़ी।
तेरा चले जाना शायद उस खुदा की मर्जी होगी रही,
तब ही तो शायद उसके दरबार में मेरी अर्जी फिर से खाली रही।
वक्त फिर बीत चला है शाम भी ढल चुकी आज फिर मेरी डायरी अधूरी ही रही,
बट से गए हैं अल्फाज़ भी और मैं भी कुछ अधूरी सी रही।
शायद किस्मत इसी को कहते हैं स्याही और कलम साथ है फिर भी जिंदगी कोरी रही,
एक अनकही सी दास्तां है जो चाहकर भी कभी पूरी न हुई।
ना जाने क्यों आज फिर मैं लिखने बैठ गई।

