कविता शीर्षक: सुनो चांद! एक पैगाम ले जाना
कविता शीर्षक: सुनो चांद! एक पैगाम ले जाना
सुनो चाँद,
रूको ना, एक पैग़ाम लिखा है,
कुछ खट्टा तो कुछ मीठा एहसास लिखा है।
उसका मुस्कुराना और बिंदास अंदाज़ भी लिखा है,
ले जा ए चाँद, मैंने क़िस्सा-ए-ख़ास लिखा है।
उस क़िस्से का हक़दार भी लिखा है,
उसकी आँखों में बसी मेरी हर बात का जबाब लिखा है।
जो लफ़्ज़ मैं कह न सका, वो जज़्बात लिखा है,
तेरी रौशनी में मैंने चुपचाप हर राज़ लिखा है।
सुन ए चांद!अब इसे अपनी चाँदनी में समेट ले,
या उसकी खिड़की पर रख आ,
उसे भी पता चले,
कि मैंने बस उसी का नाम लिखा है।
सुनो चाँद, जब वो इसे पढ़े,
तो उसके चेहरे की नर्मी, सहेज लेना।
अगर आँखें छलकें, तो मेरी यादों की चुप्पी में,
उसके आँसुओं को समेट लेना।
कहना उससे, मैं आज भी वहीं हूँ,
जहाँ उसकी हँसी की आख़िरी गूँज बाकी है।
जहाँ उसकी बातों की मीठी सी छाँव है,
जहाँ मेरी साँसों में अब भी उसकी खुशबू बाकी है।
सुन ना चांद!अगर ,वो अनसुना कर दे, तो चुप रहना,
पर उसकी पलकों पर सपनों सा ठहर जाना।
अगर वो मुस्कुरा दे, तो रातभर चमकना,
और सुबह उसकी हथेलियों पर ओस बनके गिर जाना।
अब फैसला तेरा है, ए चाँद,
तू ये पैग़ाम उसे पहुँचा पाएगा?
या फिर मेरी तरह,
बस दूर से ही उसे तकता रह जाएगा..??
सुनो चांद! सुनो ना .......

