ग़ज़ल शीर्षक: रूह की सदा
ग़ज़ल शीर्षक: रूह की सदा
सुनो कुछ कहूं??
उसकी नवाज़िश कुछ इस तरह हुई,
मेरी शख्सियत कुछ यूँ निखर गई।
मंज़िलों के जो फ़ासले थे,
वो रफ़्ता-रफ़्ता सिमट गए।
आँधियों में भी जलते रहे अरमाँ,
तेरे ज़िक्र से हर साज़ सँवर गए।
ख़्वाब आँखों में करवटें लेते रहे,
हकीक़त की चादर में सिमटते गए।
दर्द की रगों में था कुछ इस क़दर,
कि हर तिश्नगी भी अब महक गई।
तेरे लफ़्ज़ों की हर नर्मिश में,
जाँ की वीरानी भी सजती गई।
'किट्टू' जब तेरा तसव्वुर हुआ,
रूह की तहों तक सदा उतर गई।
हाँ! उसकी नवाज़िश कुछ इस तरह हुई...

