आह! तेरे रंग, वाह! तेरे ढंग
आह! तेरे रंग, वाह! तेरे ढंग
रास्ते जीवन के हों
जब गर्म धूप से भरे।
झुलसाये ताप सूर्य का,
प्राणी को व्याकुल करें।
हे ! नाथ मेरे, उस डगर पर
छांव पेड़ों की रहे,
मंद मंद समीर भी,
उस हरियाली की बहे।
कवि मन फिर इस मनुज का
आ प्रभु तुझसे कहे
अनोखे तेरे ढंग हैं और अनोखे ढंग प्रभु
बर्फीले बवंडरों में,
जब पथ जीवन त्रस्त हो,
हो थपेड़े आंधियों के ,
राह न बिल्कुल स्पष्ट हो।
आकाश में बनकर दिवाकर,
तब गर्म धूप सी खिले
सर्द सी यह वेदना,
इस गर्म ताप में घुले
कवि मन फिर इस मनुज का
आ प्रभु, तुझसे कहे
अजब तेरे रंग हैं और गजब के ढंग प्रभु
कट गए जब पंख सारे,
आस के, विश्वास के,
जकड़ पांव में पड़ी हो,
निराशा के आभास से
तब खिलते मुझको फूल दिखाना,
पत्थर की चट्टानों में,
क्रीड़ा करते कुछ बालक मिल जाएं वीरानों में
समझ सभी संकेत सारे आस हिम्मत कि बंधे।
कवि मन फिर इस मनुज का आ प्रभु तुझसे कहे,
आह तेरे रंग हैं वाह! तेरे ढंग प्रभु।