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gauri vandana

Others

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gauri vandana

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गुलज़ार

गुलज़ार

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गुलजार की सदियां ,

अब कट जाती हैं 

बहुत आसानी से ।

फिर भी याद आता है उसे, बचपन का वह जाड़ा,

जो कटता था 

बहुत मुश्किल से 

एक बाल्टी गर्म पानी और धूप के इंतजार में ।

याद आती है उन्हें, 

धूप सेकती चाचियां, दादियां, बुआ और भाभियां।

जो बुनती थी सिलाइयां या बनाती थी 

अचार,पापड़ या

सिलती थी रजाईयां।

मिल बैठ, 

उस गुनगुनी धूप में 

करके विदा, 

गर्म नाश्ते के साथ ,

अपने पति और बच्चों को ।

गुलजार क्या मालूम है तुम्हें ? कहां हैं अब तुम्हारी चाचियां, दादिया ,बुआ, भाभी या ताई 

धूप में बैठे अब तो कम ही देती हैं 

दिखाई ।


मैं बताती हूं 

कुछ तो छोटे परिवारों की बलि चढ़ गई, 

और जो हैं, 

उनमें से कुछ 

विशिष्ट बौद्धिक क्षमता के उपहार में, 

कुछ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के उत्साह में ,

कुछ स्वाभिमान से स्वावलंबी बनने के हौसले में ,

और बाकी सभी परिवार पालने की मजबूरी में।

दोहरे जीवन की आपाधापी में अदृश्य सी हो गई हैं ।


सच मानो गुलजार, 

आज भी वह सभी ,

सुबह अंधेरे में ही उठती हैं ।

पर फिर भी बहुतों के हिस्से में नहीं आता 

सैर,साधना और व्यायाम ।

क्योंकि उसे निपटाना होता है 

घर का पूरा काम 

और 

वह कर नहीं पाती विदा, 

पति और बच्चों को।

बनाकर दोपहर तक का सभी के लिए भोजन, 

खुद घर से विदा हो जाती हैं ।

अपने अपने साधन से अपनी अपनी सामर्थ्य अनुसार ।

सर्दी की जमा देने वाली धुंध भरी सुबह में 

उसे कहां परवाह होती है स्वयं की ,

और इस दौड़- भाग ने छीन ली है,

 उससे 

उसके हिस्से की धूप की गर्मी 

और हाथ से बुने स्वेटर की नरमी ।

भूल ही गई है वह 

उल्टे सीधे फंदों की बुनाई ,

हाथ की सिलाई ,

अचार चटनी और मिठाई। 

क्योंकि कभी किसी ने उसके इस हुनर की कीमत ही नहीं लगाई।


लगाई होती तो

 न आती बाढ़ बाजार में ब्रांडेड चाइनीज़ वुलनज़ की,

पैकेट बंद मसाले और नूडलज़ की।

खैर अब तुम्हारी चाचियांऔर दादियां 

अब धूप में बैठ नहीं पाती।

 हां 50 तक पहुंचते-पहुंचते 

चटकने लगते हैं घुटने और 

हड्डियां घुल हैं जाती। 

पर कमाल का जज्बा और हौंसला है 

तुम्हारी बुआ और भाभियों में ।

वो कहां मानती हैं हार। 

अपनी कर्तव्य निष्ठा पर होकर सवार 

वह भी खूबसूरत सपने बुनती हैं ।

क्योंकि वह सभी करना चाहती हैं 

अपनी-अपनी फुलवारी को।



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