मृगतृष्णा
मृगतृष्णा
अक्सर यूँ ही जिंदगी से, मैं मिलती रही
क्योंकि मृगतृष्णा के पीछे चलती रही।
जो देखना चाहती थी
मृग तष्णा वही दिखाती रही
उसे पा लेने को मैं हाथ बढ़ाती रही ,
बस आगे बढ़ने का फल मैं पाती रही
मृगतृष्णा मुझको बढ़ाती रही
हर कदम जिंदगी से मिलाती रही
गर न हो मृगतृष्णा
तो कदम थम जाएंगे।
घोर निराशा और अवसाद छा जाएंगे
झूठी-सी आशा होना भी जरूरी है
बेशक झूठ का आवरण मजबूरी है
बहल जाएंगे हम उसी के सम्बल से
पार हो जाएंगे जीवन के मरुस्थल से!