आग उगलने लगती है
आग उगलने लगती है


तब कलमवीर की कलम उठे तो आग उगलने लगती है।
जब जब अपने घर में विरोध की आँधी चलने लगती है।
जब जब सड़कों चौराहों पर मानवता जलने लगती है।
जब सोच स्वार्थी होकर निश्छलता को छलने लगती है।
कश्मीरी पंडित के दिल की जब पीर पिघलने लगती है।
जब इज़्ज़त मर्यादा अपने हाथों को मलने लगती है।
तब कलमवीर की कलम उठे तो आग उगलने लगती है।
जब पारदर्शिता का दावा झूठा साबित हो जाता है।
जब भ्रष्टाचार तानकर सीना विकृत रूप दिखाता है।
जब जब दूध मुंही बच्चियों का भी शीलभंग हो जाता है।
जब&
nbsp;बलात्कारी संविधान से खेल खेल मुस्काता है।
जब सहन नहीं होता सीने में पीर मचलने लगती है।
तब कलमवीर की कलम उठे तो आग उगलने लगती है।
जब अपमानित हो देश हृदय में शूल एक गड़ जाता है।
जब मूर्ख पड़ोसी अपनी गंदी ज़िद पर ही अड़ जाता है।
सामाजिक ठेकेदारों के मन में मवाद पड़ जाता है।
बेशर्मी का संक्रमण बढ़े तो मेरुदंड सड़ जाता है।
जब सच्चाई बेईमानी की होली में जलने लगती है।
तब कलमवीर की कलम उठे तो आग उगलने लगती है।