Ghazal..रंग मज़हबी भारी है
Ghazal..रंग मज़हबी भारी है
सारे रंग पड़े हल्के बस रंग मज़हबी भारी है।
हर मज़हब में अलग अलग भी सबकी हिस्सेदारी है।
कोई ख़ान शेख़ सिद्दीक़ी या कोई अंसारी है।
कोई बनिया, ठाकुर, हरिजन कोई दुबे तिवारी है।
नेता जी की कृपा मिली तो कई करोड़ डकार गया,
सरकारी धन हड़प हड़पकर बना सफल व्यापारी है।
ख़ून चूसने की मशीन वो ऐसे ही तो नहीं बना,
आगामी चु
नाव में धन देने की ज़िम्मेवारी है।
लव जिहाद हो या दहेज या बात भ्रूणहत्या की हो,
इन सबका शिकार बनने वाली तो केवल नारी है।
जमाख़ोर पूंजीपति बस सदियों से चाँदी काट रहे,
हर धंधे में अब देखो फैली काला बाज़ारी है।
मैं तो समझ गया तुम भी समझो वर्ना पछताओ गे,
कल मेरी बारी थी लेकिन आज तुम्हारी बारी है।