तब मेरा लहू उबलता है
तब मेरा लहू उबलता है
परिदृश्य आज का देख देख
जब क्रोध हृदय में पलता है।
तब मेरा लहू उबलता है,
तब मेरा लहू उबलता है।
वैसे तो मैं चुप रहता हूँ,
कुछ भी न किसी से कहता हूँ,
आक्रोश भरा है मन में पर,
चुपचाप उसे भी सहता हूँ,
लेकिन अयोग्य शासक बनकर
जब योग्य व्यक्ति को छलता है।
तब मेरा लहू उबलता है,
तब मेरा लहू उबलता है।
वो धर्म न कोई भी मानें,
बस आग लगाना ही जानें,
कब चोट कहाँ पर करनी है,
दुखती रग को ही पहचानें,
उनके भड़काए दंगों में
जब घर बुधिया का जलता है।
तब मेरा लहू उबलता है,
तब मेरा लहू उबलता है।
संवेदन हीन मवाली हैं
निज संबंधों पर गाली हैं,
अपनो को दिखलाते हैं जो,
वो सभी दिखावे जाली हैं।
जब क्रुर हृदय विचलित करती
आहों से नहीं पिघलता है।
तब मेरा लहू उबलता है,
तब मेरा लहू उबलता है।
कुछ लोग जंगली चीते हैं,
ये ठाठ बाट से जीते हैं,
मेहनत कश इंसानों का ये,
सब ख़ून पसीना पीते हैं,
जब आदमखोर दरिंदों के
मुह में इंसान मचलता है
तब मेरा लहू उबलता है,
तब मेरा लहू उबलता है।
निर्भया काण्ड को सोच सोच,
वो रोई छाती नोच नोच,
निर्धन जवान बेटी की माँ,
रह जाती आँसू पोछ पोछ,
व्यभिचारी कोई उसके घर
के आगे रोज़ टहलता है।
तब मेरा लहू उबलता है,
तब मेरा लहू उबलता है।
सब को नादान समझते हैं,
अपना सामान समझते हैं,
कुछ ढोंगी व्यभिचारी पापी,
खुद को भगवान समझते हैं,
ऐसे युग पुरुषों में कोई
जब आशाराम निकलता है।
तब मेरा लहू उबलता है,
तब मेरा लहू उबलता है।