बाल सखा
बाल सखा
“फिर तुम.. इतनी रात को .. ! देखो, शोर मत मचाओ, सभी सोये हैं..जाग जायेंगे। तुम्हें पता है न..समय के साथ सभी को नाचना पड़ता है।
बच्चे सबेरे स्कूल जाते हैं, पति काम पर और मैं...मूर्ख, अकेली दिन भर इस कोठी का धान उस कोठी करती रहती हूँ..।
सच कहती हूँ..बचपन की यादें –तुम्हारे साथ बिताये पल, मुझे हमेशा सताते रहते हैं पर, मैं, तुम्हारी तरह स्वच्छंद नहीं हूँ ...जो जहाँ चाहे उड़ान भर सकूँ।
समय के साथ रिश्तों की अहमियत बदल जाती है। अब तो मैं बाल-बच्चेदार वाली हो गयी हूँ और तुम, वही कुंवारे के कुंवारे !
तुम क्या जानो शादी के बाद क्या सब परिवर्तन होता है ! ओह ! फिर से शोर.., बस भी करो या..र ! पर, बिना देखे तुम जाओगे नहीं ! ठीक है, खिड़की के पास आती हूँ, देखकर तुरंत वापस लौट जाना।
जैसे ही मैं खिड़की के पास पहुँची, एकाएक बिजली की कौंध ... अधखुली खिड़की से उसका, वही नटखट चेहरा, साफ़-साफ़ दिख गया। प्यार फिर से उमड़ आया।
मैं अपने को रोक न सकी..झट दरवाजा खोल बाहर निकल आई। दरवाजे की चरमराहट से पति जग गाये... चिल्लाये, “मीरा... क्या हुआ ? कहाँ जा रही हो ?” कहते-कहते वो मेरे पीछे, दरवाजे के पास आ पहुँचे।
मेरे सामने टकटकी लगाये, उताहुल खड़ा बाल सखा ‘तूफान' और अंदर सुरक्षा की ढाल लिए खड़े पति। दहलीज से बाहर निकले मेरे पैर .... हठात् वापस कमरे में फिर से कैद हो गए।
बाहर आस लगाए खड़ा तूफान एकदम शांत हो गया। शायद, अब वो समझ चुका था कि औरत खोखले ख्वाबों में उड़ान भरने से ज्यादा .. अपने को महफ़ूज रखना अधिक पसंद करती है।