मेरे मीत
मेरे मीत
शब्दों को फलने में बहुत समय लगा, रिश्ते जड़ों से दूर होने लगे। जितना नये रिश्ते फलते उतना ही मूल से दूरी बढ़ती जाती।
किसी ने बताया भी नहीं और प्यार की एक किताब बंद पड़ी रही।
जब समय को पंख लग जाते हैं, तब मीत पुराने याद आते हैं। ये तो लम्हा भी न बीता था कि तुम याद आने लगे ।
हाँ याद में कुछ पेंसिल के टुकड़े थे, जिन्हें तुमने दाँतों से चबाया था। चेहरा तो याद नहीं, पर उसकी जरूरत भी नहीं।
तब कच्ची सड़कें हुआ करती थीं। चौक पर कभी कभी मदारी आया करता था, बन्दर बन्दरिया के खेल दिखाता।
तुम्हारा हाथ पकड़ कर देखा था एक बार।
तुम्हारे न आने पर पूरा स्कूल ही, सूना लगता था, बातें तो बहुत होती थीं, पर समझ नहीं आता था, चूरन और बेर अब किसे खिलाऊँ?
ये उन दिनों की बात है, जब रिश्तों के नाम न होते थे, प्यार भी नहीं ।
फिर तुम्हें न देखा प्राइमरी स्कूल के बाद। पूर्व निर्धारित पथ पर चलते चलते कुछ पड़ाव सीने से चिपकते रहे , घमण्ड तो बहुत हुआ पर तस्सली नहीं।
एक बार फिर देखा था तुम्हें, नाम भी पूछा था, यकीन तो था लेकिन बात करने को नाम ही सही। जिससे बात करने के लिये सारे खेल कूद, सारे दोस्त छोड़ दिये , उसी से बात करने के लिये नाम को सहारा बनाया। जवाब भी मिला ,” हां मैं वही हूँ।"
यही तो होता है पहला प्यार जो याद आने पर भी पूरा याद नहीं आता, कुछ बुनता है पर उलझता ज्यादा है। हमारे बीच कोई झगड़ा या कोई सहमति मुझे याद नहीं , शायद तुम्हें भी नहीं। अपने अपने अनुबंध लिए हम चल रहे हैं, तुम अपने ठौर मैं अपने ठौर।
अब तो चेहरे भी बदल चुके होंगे, नाम तो याद ही नहीं। अब मिलेंगे तो कारण न होगा बात करने का ।