मेरा वोट
मेरा वोट
चुनाव की सरगर्मियां तेज हो चली थीं, रंग बिरंगे पोस्टरों से गलियाँ पाटी जाने लगी। बिसन अपनी झुग्गी को देखता, इस बार पोस्टर अच्छे थे। बिसन चुनाव के बाद की तैयारी में था, उसकी निगाह केवल बैनरों पर थी। चुनाव निबटने के बाद यही, बैनर उसकी झुग्गी के छत और दीवारों के अवांछित झरोखों को ढांपने के काम आएंगे। इन दिनों बिसन बिना किसी काम के दोनों टाइम पेट भर खायेगा। कुछ लोग तो कपड़ा, कम्बल और पैसा तक दे जायेंगे।
बिसन ने संदूकची में देखा वोटर कार्ड तो है न ? अब कोई चिंता नहीं थी। वोट दो या न दो लेकिन वोटर कार्ड तो होना ही चाहिए। अब तो रोज़ ही कोई न कोई हाल चाल पूछता रहेगा। चाय की दुकानों पर विधान सभा बनने लगी, जुबान तलवार बन गयीं।
बिसन को पुराना चुनाव याद आया जब, गिरधर ने उससे पूछा था, " इसे वोट दोगे काका ?"
"अरे काहे का वोट, पर्चे पे तो चेहरा ही बना है न ?" बिसन का अपना ही मनोविज्ञान था।
चहरे पे आँख, नाक, कान हैं जो केवल ग्रहण कर सकते है देते कुछ नहीं, इन गुणों के आधार पे तो वोट नहीं दिया जा सकता। अब रही मुख की बात तो ये ग्रहण भी करता है और देता भी है, ग्रहण करे तो सब हजम और दे तो प्रश्न, ताने और आश्वासन।
बिसन का मानना था की प्रश्न तो हमें पूछना चाहिए, " मेरी झुग्गी सरकंडों की ही रहेगी क्या ?"
"मुझे भर पेट खाना चुनाव प्रचार शिविर में ही मिलेगा क्या ?"
"सड़क के नाम पे गड्ढ़े और मेहनताने के नाम पे आश्वासन ही मिलेंगे क्या ?"
चलो पिछले चुनाव का रोना अब कहे रोएं, नया समय है नया चुनाव है कल देखेंगे, सोचता हुआ बिसन सो गया।
पौ फटते ही उसकी नींद खुल गयी, नित्य कर्मों से फ़ारिग हो कर, बिसन एक पार्टी के चुनाव कार्यालय में पहुंचा, सब व्यस्त थे कोई पोस्टर गिन रहा था कोई बैनर, कोई पर्ची पे नाम लिख रहा था। बिसन को आश्चर्य हुआ पिछली बार तो उसके आते ही ऐसा हड़कंप मचा था मानो कलेक्टर ही आ गया हो।
इस बार बेरूखी कैसी ? "ताऊ तुम्हारा नाम नहीं है वोटर लिस्ट में", पर्ची बनाने वाले ने बिना नजरें उठाये ही कहा।
बिसन को तो लगा लहराता हुआ चाबुक पड़ा हो, लेकिन दिल न माना "अरे कैसे नहीं है ? ध्यान से देख " उसके मुंह से निकला। पर्ची बनाने वाले ने कागज का एक बण्डल बिसन को दिया "तुम्ही देख लो।"
बिसन ने चार बार लिस्ट को चेक किया। बिसन बिना कुछ कहे वापस अपनी झुग्गी की ओर चल पड़ा।
अब वह सोच रहा था, " किसी को बताऊंगा नहीं ।"