वो कौन थी?
वो कौन थी?
वो कौन थी??
अजी कोई ये भी पूछता है, नींद से उठने पर!
हम वो नमूने हैं। क्या करे वो थी ही कुछ ऐसी की मुँह से ये बात निकलते देर न लगी।
अपने रास्ते पर हम चले जा रहे थे बेखबर से, बेबाक से, मंज़िल का कोई पता नहीं, न ही रास्तों की कोई सूझ-बूझ बस इस दुनिया ने कह दिया था और हम चल पड़े थे एक पल सुकून की तलाश में। वो रास्ता भी किसी जन्नत की सैर से कम नहीं था। पर ज्यादा नहीं बोलूँगा क्योंकि वो असल मे तो जन्नत था नहीं।
फिर भी किसी की दुख भरी कहानी सुनने को वहाँ बहुत सारे पंछी थे जो मुझसे शायद चिल्ला चिल्लाकर कह रहे थे कि धीरे धीरे चल रे आगे क्या मिल जाए क्या पता! और क्या पता तू वो सह पायेगा की नहीं ? इतनी ठंढी हवा वाले वातावरण में भी दिल जैसे गरम हो रहा था, यही बार बार कह रहा था मैं क्या बस धड़कने के लिए ही बना हूँ? मैं कहता हाँ और क्या, फिर आगे बढ़ जाता।
रास्ते भी मेरे साथ योगा-योगा खेल रहे थे, कभी इधर मोड़ तो कभी उधर, मतलब चैन से सीधे नहीं बने रह पा रहे थे।
चलते-चलते कभी कोई आता दिखता तो हमें भी लगता कोई इंसानों वाला काम कर रहा हूँ।
कभी किसी को देख कर मुस्कुरा देता तो लटके हुए चेहरे पर मुस्कान आ जाती थी, दो पल ही सही लगता की कोई अपना अपने पास हो।
कभी-कभी वो भी दिख जाता जिसकी उम्मीद बिल्कुल शून्य रहती, जैसे मेरे सामने वाला घर खासकर वो खिड़की जिसके सामने मेरी आँखें आप ही पाँच बजकर बीस मिनट पर दौड़ कर चली जाती थीं। और वो गाड़ियों का शोरगुल भी कभी-कभी सुनाई दे ही देता, जिसको सुन कर सारे भाव सारे जज़्बात बेमौत मारे जाते।
फिर भी इन सबका अनुभव करते-करते दूर तक निकल गए थे इस बात से बेखबर की ज़िंदगी मुझे एक पल में रोकने वाली थी। एक पुराने अनुभव को सोचकर मुस्कुरा रहे थे और चले जा रहे थे कि अचानक मेरी आँखों ने उस जन्नत में एक परी को देख लिया! वो रास्ते के एक छोर से दूसरे की ओर अपने छोटे से खरगोश को बारिश से बचाने के लिए भागी जा रही थी। एक बार को सोचा काश मैं वो खरगोश ही होता! फिर बिल्ली, कुत्ते और न जाने कितने जानवरों के नामो ने उस सोच को नोच नोचकर मार डाला। मैं वहीं रास्ते पर खड़ा हो गया, चलने से थोड़ी ही दूर पर एक आशियाँ मिल जाता सिर छुपाने को, पर कहाँ अब ये पागल दिल मानने वाला है, उसे तो बीच रास्ते में ही खड़ा होकर भीगना ज्यादा अच्छा और सुकून भरा लग रहा था।
अरे देखिये बताना भी भूल गया की बारिश तभी शुरू हुई जब मेरी नज़र उसके रेशमी-केसरी ज़ुल्फो में जाकर उलझ गयी। थोड़ी देर उन ज़ुल्फों ने नज़रों को चिपका कर रखा उसके बाद उसके चेहरे पर पहुँचा, उतना गोरा नहीं था जितना कहानियों में परियों का होता है, जितना टीवी के विज्ञापनों मे लड़कियों का होता है, मतलब निरमे से लगातार दस साल धुला नहीं गया था रगड़ रगड़ कर पर वो खूबी शायद अभी तक मेरी सुनी किसी कहानी में नहीं थी।
उसके आगे मुझे रास्ता तो क्या मुझे कुछ भी नहीं दिखा रहा था। अब क्या करूँ न कोई मदद करने को था न कोई दिलासा देने को!
और वो परी अपने गुलाब से गुलाबी कपड़ों में किसी गुलाब से कम नहीं लग रही थी खैर पीले में होती तो एकदम रानी लगती परियों की!
फिर एक बार सोचा की उसके सामने जाकर कुछ बड़बड़ाए पर क्या करें अपनी हालत कुछ अच्छी नहीं थी! दोनो बाहों के नीचे कमीज फटी हुई थी, गर कहीं उसके सामने ज्यादा उत्साहित हो गए और लगे उसकी तारीफ करने तो हाथ तो ऊपर उठना लाजमी हो जायेगा, जूतों में आगे की ओर छेद था, बारिश का पानी ही निकालते रह जाते उसके सामने जूतों से, फालतू इधर उधर दौड़ रहे थे बेकार से, गर कहीं वो पूछ लेती की यहाँ क्या करने आये हो तो और खराब हालत हो जाती! इसलिए बस अपनी आँखों पर सारा काम छोड़ दिया, और इस सोच मे पड़ गए की काश वो खुद आकर कहती भीग क्यों रहे हो बेवकूफ़।
तभी एक आवाज़ आई, "ए हट आगे से मरना है क्या? "
मैं फ़ौरन रास्ते के एक किनारे हो गया। पर जाते-जाते उस पागल गाड़ी वाले को मारने के चक्कर मे धड़ाम से गिर गए। माँ कसम उस वक़्त तो ऐसी बेज़्ज़ती हुई कि ऐसी पिछले दस सालों मे नहीं हुई थी। फिर जल्दी से ये सुनिश्चित करने को उसकी तरफ नज़रे उठाई की वो देख तो नहीं रही, पर अफसोस वो देख भी रही थी और हँस भी रही थी। फिर क्या हमने भी एक झूठी हँसी उसकी तरफ फेक कर ऐसे दिखाने लगे जैसे वो कीचड़ का दाग पहले से ही कपड़ो पर सुंदरता के लिए लगा था। पर हम कहाँ इतने अच्छे अभिनेता उसने शायद सब पकड़ लिया था। वो खुद ही मेरे पास आई और आते ही बोली, "क्यों अपनी सच्चाई को झूठी कब्र में दफना रहे हो? ज़िंदगी की सच्चाई के साथ जीने में जो मज़ा है वो किसी और दिखावे में नहीं।"
अब मैं बिल्कुल मर सा चुका था, वो खुद ही बात करने आ गयी तो जैसे दिमाग पर पर्दा पड़ गया था, कोई आवाज़ नहीं आ रही थी, फिर उसने कहा जब ठीक हो जाओ तो बोल देना और जाने को मुड़ी ही थी कि मेरे मुँह से निकल पड़ा, "ज़िंदगी एक बेवफ़ाई का गीत है, इसको सुनने वाले बहुत कम ही मिलते हैं, और किसी को दो बात बतानी हो तो उसको चार करना ही पड़ता है, किसी को देखना हो तो दिखावा करना पड़ता ही है, किसी की किताब उधार लेनी हो तो अपनी किताब का हर एक पन्ना चमकदार रखना पड़ता है, किसी के साथ दो कदम चलना चाहो तो अपने जूते साफ सुथरे रखने ही पड़ते हैं।"
पता नहीं ये शब्द कहाँ से निकले पर जो भी निकले पता नहीं सही थे या नहीं यही सोच रहा था।
तब तक उसने फिर बोला, "ज़िंदगी साफ सुथरी तो रहे पर चमकदार नहीं , जूते पास तो हों पर मात्र छालों से बचने के लिए, गीत कोई सुने या न अपनी नज़रों में मीठा होना चाहिए, अपनी किताबों के पन्ने चाहे रद्दी ही हों पर बातें उसमे जन्नती होनी चाहिए। "
मैंने कहा, "आपकी बातों में बहुत गहराई है, शायद आँखों में भी हो।"
उसने कहा, "हाँ! है तो गहराई बहुत ज्यादा पर हर किसी के बस की बात नहीं इसमे डूबना।"मैं ज़रा सा सोच में पड़ गया कि बात आँखों की हो रही है या बातों की! मैंने सोचा ज्यादा बात करना अच्छा नहीं होगा, तब तक उसने पूछ लिया, "किसी के सामने कुछ और होने का ढोंग करते करते इंसान अपनों से कितना दूर चला जाता है पता है?"
मैं निःशब्द था, क्योंकि उस वक़्त मैं कुछ बोलता तो मेरी आवाज़ से रुंधली सी भावनाएँ पता नहीं कब छलक पड़ती कोई भरोसा नहीं था, और मैं उसको अपनी कहानी सुनाना नहीं चाहता था। मैंने बस हाँ में सिर हिला दिया। वो समझ गयी मैं क्या कहना चाहता हूँ और क्या छिपाना। सफर कैसा भी हो, किसी भी मंज़िल का हो जब तक कोई पुराने दिनों की याद नहीं दिलाता मुझे न बेकरारी होती है न ही सुकून मिलता है, पता नहीं क्यों। खैर इस बात का ग़म तो नहीं पर पछतावा बहुत है कि अपनो से कितना रूठे रहते थे और अब ज़िंदगी ने उनको ही दूर कर दिया है। जिस तरह कपड़े लगातार धुलने से रंग छोड़ने लगते हैं उस तरह से उस तरह से रास्ते अपना रंग क्यों नहीं बदलते, क्यों नहीं लगातार पड़ रहे छाले कम हो रहे? बच्चों के नियमों की तरह ये ज़िंदगी की सच्चाई नहीं बदलती, और सबसे बड़ी सच्चाई यही है।
ये कहकर कि फिर मिलेंगे वो उसने खरगोश का माथा चूमा और जाने लगी, मैं चाहता था की एक पल को उसको रोक लूँ और पल भर ही सही उसकी आँखों की गहरियों में जी लूँ, उसकी ज़ुल्फों के साथ बहता ही जाऊँ, उसके रागों में अपना राग मिलाकर इन पंछियों के साथ नाचूँ। ऐसा लग रहा था जैसे किसी जिंदा इंसान का जनाज़ा जा रहा हो और वो चाह कर भी कुछ न कर पा रहा हो। वो अब तक तो काफी दूर चली गयी थी पर अभी भी उसके गुलाबी कपड़ो और गुलाबी मिज़ाज़ की झलक मिल रही थी, उसके बातों की गर्मी अभी भी सांसों में भरी हुई थी। जैसे-जैसे वो दूर जाती वैसे-वैसे मेरे सीने में उन बातों की गर्मी बढ़ती जा रही थी।
कहा जाता है कि हमको किसी की कीमत तब ही मालूम होती है जब वो हमें अकेला सोचने को छोड़कर चला गया हो, पर आज वो बात अनुभव कर रहा दिल रोता जा रहा था, और मैं तसल्ली देता बस पूछे जा रहा था कि उसका तेरा नाता क्या था? किसी की याद में रोना ज़रूरी है क्या? उसी ने तो कहा था क्यों अपनी सच्चाई को झूठी कब्र में दफना रहा है? ज़रूरी तो नहीं कि हर वक़्त पंछी तुम्हारी कहानी सुनने को तैयार हों, ज़रूरी तो नहीं की आते-जाते हर इंसान की तरफ देखकर मुस्कुराया ही जाए, ज़रूरी तो नहीं कि पांच बजकर बीस मिनट हमेशा सूरज की लालिमा मिलने के बाद ही हो, ज़रूरी तो नहीं कि हर बार बारिश में भीगने पर सुकून ही मिले, ज़रूरी तो नहीं कि गुलाब ज़िंदगी भर हस्ता खिलता रहे और खूशबू देता रहे, ज़रूरी तो नहीं कि आपकी मुफलिसी से हर किसी को घिन ही आती हो, ज़रूरी यह भी नहीं कि आपको हमेशा गुलाबी की जगह पीला रंग ही मिले, ये सब बातें मुझे सिखा कर वो चली गयी, वो लड़की मात्र नहीं थी, वो एक अहसास थी जो अब भी हर हवा के झोके के साथ आता है। फर्क बस इतना ही है कि उसको मिला था ख़्वाब में और सोचता हकीक़त में हूँ, उस दिन जब मैं उठा तो सबसे पहले यही आवाज़ निकली कि "वो कौन थी?"
और आज ये लेख लिखते वक़्त भी यही खयाल है बस इसमे एक और सवाल जुड़ा हुआ है कि उस हसीन अहसास से ज़िंदगी की सच्चाई में मुलाकात होगी या नहीं ? और यकीन मानिये ये एक सवाल मात्र ही है न कि चाहत।