खोटा सिक्का
खोटा सिक्का
"ये लो ! मैं बुध ग्रह को जीत गया।" उस सितारे की तीव्र तरंग दैर्ध्य वाली खुशी से भरपूर ध्वनि से आसपास की आकाशगंगाएं गुंजायमान हो उठीं।
सूदूर अंतरिक्ष में, जहाँ समय और विस्तार अनंत हैं, चार सितारे अपने ही प्रकार का जुआ खेल रहे थे। दांव पर लग रहे थे, उनके सौरमंडल के विभिन्न छोटे-बड़े ग्रह, उपग्रह, उल्कापिंड आदि। मनुष्यों से प्रेरित हो हमारा सूर्य भी उनमें से एक था। हालांकि उस समय उसका समय सही नहीं था। वह लगातार हार रहा था।
शनि के वलय, मंगल का सबसे ऊंचा पर्वत, बृहस्पति का एक चन्द्रमा हारने के बाद उसने कुछ बड़ा जीतने की उम्मीद में बुध को दांव पर लगा दिया लेकिन जब समय साथ नहीं देता तो बड़े से बड़े ऊर्जावान का सक्रीय मस्तिष्क भी वक्रीय हो जाता है और खेल-खेल में ही दूसरे सितारे ने बुध को भी जीत लिया।
बुध को अब हमारे सौरमंडल को छोड़ कर कहीं और जाना था। सूर्य के लिए अपने सबसे छोटे पुत्र का यह बिछोह असहनीय था। उसने बुध को फिर से पाने के लिए अपनी बेटी धरती को दांव पर लगा दिया।
धरती यह देख-सुनकर कांप सी गयी। खेल रहे बाकी तीन सितारों ने भी धरती पर दृष्टि डाली, एक-दूसरे से इशारों में बात की और फिर एकमत होकर सूर्य को धरती को दांव पर लगाने से मना कर दिया।
चौंधते हुए सूर्य ने चौंकते हुए कारण पूछा तो उनमें से एक ने टिमटिमाते हुए कहा, "पिछली बार जब देखा था, तब तो नीले रंग की धरती बहुत सुंदर थी लेकिन अब इसमें वो बात नहीं रही। यह काली होती जा रही है। खनिज तो क्या हवा भी ज़हरीली है, जल भी गंदा हो चुका है। खाद्यान्न भी विषाक्त ! ऐसी खोटी धरती दांव पर लगने लायक है ही नहीं।"
सूर्य धरती को दांव पर नहीं लगा सका और धरती ने सौर वायु से चैन की साँस लेते हुए मानवों का शुक्र अदा किया।