दस्तूर - भाग-2
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दस्तूर – भाग-2
यमुना ने मिर्ज़ा के बारे में आगे बताते हुए कहा "मिर्ज़ा की शख्सियत की सबसे खास बात थी उनका हद दर्जे का खुद-ऐतमादी होना और दूसरों पर आसानी से हावी हो जाना. अब ये किसी भी वजह से हो सकता था, मुमकिन हो कि यह उनके बेखौफ होने और जोखिम उठाकर किसी काम को कर दिखाने की बचपन की आदत की वजह से हो, या फिर हो सकता है कि यह उनकी बेहतरीन लिखाई-पढ़ाई और लगातार अव्वल आने की वजह से हो, जैसा कि लोग कहते भी हैं कि "अच्छी तालीम शेरनी का दूध है, उसको जो पीता है, वही दहाड़ता है". या फिर ऐसा भी मुमकिन है कि कड़ी मेहनत के बाद आई.ए.एस. जैसा इम्तेहान पास करने की वजह से ऐसा हो, जो शायद हज़ारों-लाखों में चंद गिने-चुने लोग ही कर पाते हैं.......या कुछ भी हो, मगर बात ये सौ फीसदी सही थी कि मिर्ज़ा के आगे सामने वाला इंसान खुद को कमज़ोर ही महसूस करने लगता था. शायद यही वह बात थी जिसको लेकर शायद मिर्ज़ा के वालदेन फिक्रमंद रहा करते थे".
"एक दफा सभी भाई-बहन घर के सामने खेल रहे थे. तुम्हारी दादी वहीं सामने बैठी थीं. लगभग 15-16 साल के रहे होंगे तुम्हारे अब्बू उस वक़्त. एक नशे में धुत्त आदमी बड़े ही खतरनाक ढंग से कार चलाते हुए वहाँ से गुज़रा. उसकी गाड़ी लगभग फरीद के कंधे को छूती हुई निकली. बेचारे फरीद लड़खड़ा कर वहीं गिर पड़े. सारे बच्चे "फरीद भाईजान!!" चिल्लाते हुए उनकी तरफ उन्हें उठाने भागे. चाँदनी बेग़म की तो जान ही निकल गयी थी यह देखकर, वे भी जल्दी से ज़मीन पर गिरे फरीद के पास पहुँचीं. मिर्ज़ा भी वहीं थे, उन्हें यह सब देखकर बड़ा गुस्सा आया. उन्होने पास पड़ी एक बड़ी सी ईंट उठायी और पूरी ताक़त से गाड़ी की तरफ फेंकी. निशाना बड़ा पक्का था और ईंट सीधे कार के पिछले शीशे पर जा बैठी और महंगी गाड़ी का महंगा शीशा चकनाचूर हो गया था. गाड़ी रोककर गाड़ी का ड्राइवर माँ-बहन की गालियाँ देते हुए बाहर निकला "किसने तोड़ा शीशा मादरचोद?......सामने आ बहनचोद!!" मिर्ज़ा बिना डरे उसकी ओर बढ़ चले. उन्होने चिल्लाकर उस से कहा "मैने तोड़ा है शीशा हरामखोर!....पहले तू बता, गाड़ी चलाने का ये तरीका है कमीने?...मेरा भाई मर जाता तो?....और गाली कैसे दी तूने मुझे?" मिर्ज़ा अब तक उसके पास तक पहुँच चुके थे, और पहुँचते ही उसका गिरेबान पकड़कर उसके चेहरे पर 4-5 करारे थप्पड़ रसीद कर दिये.
वह आदमी बिल्कुल अवाक रह गया था. उसने सोचा भी नहीं होगा कि 15-16 साल का यह दुबला-पतला लड़का ऐसे सामने से चलकर आयेगा और भरी दोपहरी में सबके सामने ऐसे गिरेबान पकड़कर उसके ऊपर थप्पड़ों की बरसात कर देगा. अब तक भाइयों ने भी देख लिया था कि झगड़ा बढ़ रहा था. मिर्ज़ा के भाई भी वहाँ पहुँच गये और मिर्ज़ा, मुराद और शाह ने मिलकर उसकी पिटाई शुरु की. फिर चाँदनी बेग़म और फरीद ने उन तीनों को उस से अलग किया और आगे से गाड़ी सही चलाने की नसीहत दी".
"कुछ दिनों के बाद सैयद साहब फरीद को फैक्ट्री घुमाने ले जा रहे थे. वे चाहते थे कि फरीद धीरे-धीरे कारोबार को समझे इसलिये वह उसे कभी-कभी फैक्ट्री घुमाने ले जाते थे. बाकी के बच्चों ने भी घूमने की ज़िद की तो सैयद साहब मुस्कुराते हुए अपने चारों बेटों और दोनो बेटियों को भी अपनी गाड़ी में बिठाकर अपनी फैक्ट्री दिखाने ले गये थे. वे लोग फैक्ट्री में घूम-घूम कर लोगों से मिल रहे थे. दोनों बेटियाँ आपस में बात करते और खेलते हुए एक मशीन के पास पहुँच गयी थीं. वहाँ काम कर रहे मजदूर उन्हे वहाँ से हटा रहे थे. अचानक करके मशीन में चिंगारी निकलने लगी थी और इसके पहले कोई कुछ समझ पाता, मशीन और उसके आस-पास रखे ज्वलनशील सामानों ने आग पकड़ ली. आग से फूटती हुई चिंगारियाँ कुछ दूसरी मशीनों पर जा पहुँची जिस से उनमें भी आग लग गयी थी. फैक्ट्री के उस हिस्से में अफरा-तफरी मच गयी थी. सैयद साहब के सामने ही तीन मजदूर और सैयद साहब की दोनों बेटियाँ आग में फँसने वाली थी. मिर्ज़ा के भाईयों को मानो साँप सूँघ गया था, और वे उस आग के डर से भाग खड़े हुए, लेकिन उस नाज़ुक मौके पर मिर्ज़ा ने बड़ी दिलेरी और हैरान कर देने वाली तेज़ी दिखायी और उन तीनों मजदूरों और अपनी बहनों के लिये आग से बाहर निकलने का रास्ता पल भर में साफ कर दिया जिस से उन पाँचों की जानें बच गयी थीं. खुद मिर्ज़ा को भी इसमें मामूली चोट आयी थी".
"उसके बाद हर कोई वहाँ कई दिनों तक मिर्ज़ा की ज़बरदस्त बहादुरी और हैरतंगेज़ तेज़ी की तारीफ ही करता रहा था. खुद सैयद साहब और उनका पूरा स्टाफ इस 16 बरस के नौजवान की, अपने उम्र से कहीं आगे की समझ पर दंग था. सैयद साहब जब भी मिर्ज़ा के बारे में किसी से बात करते, बड़े फख्र और खुशी से इस वाकये का बयान करते थे".
"तो फिर अब्बू के वालदेन फिक्रमंद क्यों रहते थे?.....मतलब अब्बू तो हर लिहाज़ से ऐसे ही साबित हो रहे थे, जैसा कि कोई वालदेन चाहते होंगे. हर कोई चाहता है कि उसका बेटा ऐसा ही हो जो पढ़ने-लिखने में अव्वल होने के साथ, घर के लोगों और अपनी ज़िम्मेदारियों को समझे भी और मुश्किल वक़्त आने पर हमेशा परिवार के लिये खड़ा होता हो......और फिर खुद-ऐतमादी होना तो बहुत अच्छी बात है न.....अगर वह खुद-ऐतमादी न होते तो कभी उन मजदूरों और दोनों फुफी को आग से निकाल नहीं पाते.....खुद-ऐतमादी लोग ही तो ज़िंदगी में आगे निकलते हैं.....इसमे ऐसे फिक्र की क्या बात थी?...ये तो खुशी की बात थी" शफाक़त ने कहा.
यमुना ने जवाब दिया "बेशक यह एक खुशी की बात थी कि घर का एक बच्चा ऐसा था. लेकिन शफाक़त, माँ-बाप तो आखिर माँ-बाप ही होते हैं. वे अपने सभी बेटे-बेटियों के बारे में अच्छी तरह से जानते-समझते हैं. हर माँ-बाप ये खूब जानते हैं कि उनके कौन से बच्चे में क्या हुनर है?, वह किस बात में अच्छा है और दूसरों से बेहतर है?, उसकी क्या-क्या कमज़ोरियाँ हैं? वगैरह-वगैरह. तुम्हारे दादा-दादी भी इस बात से कोई परे नहीं थे".
"मतलब?" शफाक़त ने सवाल किया.
यमुना ने कहा "मतलब यह कि…..तुम ठीक कह रहे हो कि हर माँ-बाप की ख्वाहिश होती है कि उसका बच्चा निडर हो, बहादुर हो और खुद-ऐतमादी हो और तुम्हारे अब्बू यकीनन ऐसे ही थे....लेकिन हाथ की पाँचो उंगलियाँ कभी बराबर नहीं होतीं. इसी तरह तुम्हारे अब्बू के भाई भी उनकी तरह उतने निडर और खुद-ऐतमाद नहीं थे. सीधे-सीधे कहूँ तो मिर्ज़ा के मुकाबले वे थोड़े से कमज़ोर थे....शरीर से भी और दिमाग से भी".
शफाक़त सुन रहा था.
"शफाक़त, हर माँ-बाप की यह पूरी ज़िम्मेदारी होती है, कि वे घर में ऐसा माहौल रखें, अपने बच्चों की ऐसी परवरिश करें कि उनके एक बच्चे को, दूसरे बच्चे की वजह से कोई खतरा महसूस न हो. किसी भी बच्चे को ऐसा कभी नहीं लगना चाहिये कि उसके किसी दूसरे भाई या बहन में फलाँ खासियत है और उसके अंदर वह खासियत नहीं है जिसकी वजह से वालदेन उसके भाई या बहन को ज़्यादा पसंद करते हैं, और उसको नहीं, वह उसके भाई या बहन को ज़्यादा प्यार करते हैं, उसको नहीं. ज़रूरी नहीं है कि सभी बच्चों में एक सी खासियत हो ही.....ये कोई ज़रूरी तो नहीं था कि अगर तुम्हारे अब्बू निडर और खुद-ऐतमाद थे, तो उनके भाई भी उन्ही के जैसे निडर और खुद-ऐतमाद हों ही. हर बच्चा अलग होता है, हर बच्चा खास होता है और माँ-बाप को अपना प्यार अपने सभी बच्चों में बराबरी से ही बाँटना चाहिये. किसी एक को किसी दूसरे की बजाय तवज्जो देने से, बच्चों के मन पर बुरा असर पड़ता है, और बचपन में यदि मन पर बुरा असर हुआ तो वह आखिर तक रहता है, जैसे तुम्हारी रुखसार फुफी जहाँआरा फुफी को पसंद नहीं करती थी और इसके लिये अपने वालदेन को ही ज़िम्मेदार ठहराती थीं.....फिर किसी भी घर में माँ-बाप हमेशा कमज़ोर बच्चे का साथ देते ही हैं, यह कोई नई बात तो नहीं है, आखिरकार उन्हीं का बच्चा तो वह भी है....जैसे अब अगर घर का कोई बच्चा अपंग है और कोई बच्चा बिल्कुल ठीक है, तो तुम ही बताओ, क्या तुम अपने अपंग बच्चे का साथ नहीं दोगे?".
".....तो क्या बाकी के भाई भी अब्बू को पसंद नहीं करते थे, और क्या दादा-दादी भी अब्बू को ज़्यादा मानते थे?.....अभी तो आपने बताया कि वे लोग बड़े ताऊजी को सबसे ज़्यादा पसंद करते थे, और उन्हीं के हाथ कारोबार भी सौंपना चाहते थे? ......फिर यह बात कहाँ से आ गयी?" शफाक़त ने पूछा.
".....बात यह थी कि यह मिर्ज़ा को भी पता था कि उनके भाई उनके जैसे हिम्मती और खुद-ऐतमाद नहीं थे. मिर्ज़ा यह भी जानते थे कि पढ़ने-लिखने में वह सबसे अव्वल हैं. उनकी इन्ही खासियतों के कारण उनके भाई उनके आगे ज़्यादा बोल भी नहीं पाते थे. मिर्ज़ा यह भी जानते थे कि उस दिन जब वह फैक्ट्री में आग से अकेले जूझे थे, तब उनके भाई डर की वजह से किनारे ही खड़े देख रहे थे. उसके पहले उन्होने ही कार का शीशा तोड़ा था और कार वाले को सबक भी सिखाया था. और यह सभी बातें मिर्ज़ा कभी-कभी अपने भाई-बहनों से बोल भी दिया करते थे जो ज़ाहिर तौर पर उन लोगों को बुरी भी लग जाया करती थीं. जैसे खेल-खेल में ही जब कभी मिर्ज़ा हारने लगते थे -- वैसे ऐसा बहुत कम ही होता था कि मिर्ज़ा किसी खेल में अपने भाइयों से हारें -- लेकिन फिर भी, जब भी वह हारते और उनके भाई आदतन उन्हें मज़ाक में चिढ़ाने लगते थे तो वह अक्सर गुस्से में कहा करते थे "...हाँ, हाँ, देखी है तुम लोगों की हिम्मत.....उस दिन जब कार फरीद भाई को धक्का मार के गई, तभी भी देखी थी, और उस दिन फैक्ट्री में भी देखा था कि कैसे दुम दबा के भाग खड़े हुए थे सब के सब.....आज जब मैं खेल में हार रहा हूँ तो तुम सब मेरे सर पर चढ़ के बात कर रहे हो..." यह बातें उनके भाईयों, शाह और मुराद को खल जाया करती थी. और खेल में जीतने पर भी मिर्ज़ा फिर अपने भाईयों पर तंज़ ही कसते थे "तुम लोग कभी जीत नहीं सकते हो....हिम्मत ही नहीं है जीतने की. न तुम लोग लिखायी-पढ़ाई में जीतते हो, न खेल में". फरीद बड़े थे, वह कभी भी बुरा नहीं मानते थे, बल्कि बात को हँस कर टाल देते थे मगर सैयद साहब और चाँदनी बेग़म जब भी यह सब होता हुआ देखते, वो तुरंत ही मिर्ज़ा को ज़ोर से डाँट लगाते थे, जिस से उनके भाईयों को यह न लगे कि माँ-बाप उनका साथ नहीं देते. इसी बात को लेकर तुम्हारे दादा-दादी फिक्रमंद थे".
"दरअसल बात यह थी कि तुम्हारे अब्बू काबिल तो थे ही, वह इस बात की भी बड़ी शिद्दत से, और इंतेहाई आरज़ू रखते थे कि उनसे आगे कभी कोई निकल ना सके, चाहे फिर वह उनके सगे भाई ही क्यों न हों. बचपन में ज़रूर यह बात अच्छी मानी जाती है, मगर इसे बचपन से आगे बढ़ने देना अक्सर ठीक नहीं होता".
"सैयद साहब अक्सर चाँदनी बेग़म से कहते थे "मिर्ज़ा घमण्डी होते जा रहे हैं. यह बात सही है कि उनके जैसी हिम्मत और खुद-ऐतमादी हमारे बाकी के बच्चों में नहीं है. यह भी दुरुस्त है कि लिखने-पढ़ने में भी वह अपने भाईयों पर बीस बैठते हैं इसीलिये उनके भाई भी उनके आगे बोल नहीं पाते.....लेकिन इसका यह मतलब थोड़ी है कि हर बात पर अपने भाईयों को इस तरह से ताना दिया जाये, ऐसे नीचा दिखाया जाये. यह गंदी बात है. ऐसा करने से भाईयों में नफरत फैलती है. ये एक ही घर के बच्चे हैं, सगे भाई हैं. हमें इसे रोकना चाहिये और मिर्ज़ा को समझाना चाहिये".
चाँदनी बेग़म कहती थीं "बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप. अब दुनिया का हर बच्चा एक सा थोड़ी होता है. हर बच्चा एक-दूसरे से अलग ही होता है, चाहे भाई ही क्यों न हो. कई मायनों में फरीद, मिर्ज़ा से अच्छा लड़का है, तो कई मायनों में मिर्ज़ा बेहतर है, कई मायनों में शुज़ा अपने भाईयों से अच्छा है....मिर्ज़ा की यह आदत खराब होती जा रही है और पढ़ाई-लिखाई में बहुत अच्छा होने और हिम्मती, खुद-ऐतमादी होने की उसकी खासियत अब उनके घमण्ड में तब्दील होती जा रही है".
"इस तरह से तुम्हारे दादा-दादी मिर्ज़ा की इसी आदत से थोड़े फिक्रमंद रहते थे, और मिर्ज़ा भी न सिर्फ जवानी तक, बल्कि शादी के बाद तक यह कह सब कर अपने भाईयों पर फिक़रे कसा करते थे".
शफाक़त ने पूछा "अच्छा, फिर?"
यमुना ने कहा "...हाँ, तो मैं बता रही थी कि 1950 ई. में मिर्ज़ा ने अव्वल दर्जे में बी.ए. पास किया था, जिसकी खुशी में उनके अम्मी-अब्बू ने अपने घर पर एक जलसा रखा था. उसमें सैयद साहब के कई कारोबारी दोस्त भी आये हुए थे, उन्हीं में से एक थे फिरोज़ाबाद के अक़रम खान. वे सैयद साहब के जिगरी यार थे. सैयद साहब उनके पास बैठ कर चाय पीते हुए बातें कर रहे थे जब खान साहब ने सैयद साहब से अपने मन की बात रखी "सैयद साहब, अगर आप बुरा न माने तो एक बात कहूँ?"
"कैसी बात करते हैं खान साहब, आज तक आपकी किसी बात का बुरा माना है मैंने? चलिये बताइये, क्या बात है?" सैयद साहब ने मुस्कुराकर कहा.
"नहीं....फिर भी, बच्चों से जुड़ी एक अहम बात है"
"जी, बताएं खान साहब"
"सैयद साहब.....हमारी बड़ी बेटी है, ज़ीनत....आप जानते ही हैं उसको"
"अरे बिल्कुल खान साहब, बिटिया को तो गोद में खिलाया है हमने" सैयद साहब ने हँसकर कहा.
"जी, जी.....असल में मैं और हमारी बेग़म, हम दोनों की ही दिली ख्वाहिश है कि.....हमारी ज़ीनत, आपके घर की भी ज़ीनत बने.....मतलब हम ये चाहते हैं कि आपके बेटे हैदर से, हमारी ज़ीनत की शादी मुकम्मल हो जाती तो अच्छा होता" खान साहब ने हिचकते हुए अपनी बात रखी.
सैयद साहब गम्भीर हो गये "खान साहब, कोई भी मुश्किल नहीं है मिर्ज़ा की शादी ज़ीनत से करने में....बल्कि हमें तो बड़ी खुशी होगी अगर ऐसा होता है.....मगर हमें ऐसा लगता है कि शादी करने के लिये अभी मिर्ज़ा की उम्र काफी कम है. फिर एक और बात है खान साहब.....वह यह कि मिर्ज़ा लिखाई-पढ़ाई में काफी अच्छे हैं, और आगे पढ़ना भी चाहते हैं.....अब उनकी पढ़ाई रोककर उनको शादी के लिये कहना हमें कुछ ठीक नहीं जान पड़ता. लड़की होने के बावजूद हमने जहाँआरा को काफी पढ़ाया था...वो तो शादी के बाद भी पढ़ रही है. फिर मिर्ज़ा तो घर के लड़के हैं.....उनकी पढ़ाई हम बीच में रोकना नहीं चाहते हैं. इसलिये हम आपसे यह ज़रूर कहेंगे, कि पहले मिर्ज़ा की पढ़ाई पूरी हो जाने दीजिये. पढ़ाई के बाद वह जब खानदान का कारोबार सम्भालने के लिये उतरेंगें तो हम उनकी शादी के लिये सबसे पहले आप ही के पास पूछने आयेंगे.....ये मैं आपको ज़बान देता हूँ".
"खान साहब सैयद साहब की ओर देख रहे थे".
"उनके हाथ पर हाथ रख कर सैयद साहब ने कहा "खान साहब, लड़की के बाप आप भी हैं, और हम भी. हमने भी अपनी बेटियों की शादियाँ की हैं. मैं समझ सकता हूँ कि हर बाप यही सोचता है कि जितनी जल्दी यह बोझ उतर जाये, उतना ही अच्छा है....और मैं मना कतई नहीं कर रहा हूँ, बस आपसे थोड़ा वक़्त माँग रहा हूँ.....मैं वायदा करता हूँ कि हैदर की पढ़ाई के बाद मैं आपके घर रिश्ता लेकर आऊँगा" ".
"अब कहीं जाकर खान साहब बेफिक्र नज़र आ रहे थे. तो इस तरह से तुम्हारे अब्बू से बिना पूछे तुम्हारे दादा जी ने उनकी शादी का वायदा कर लिया था".
"उस रात को खाने के बाद जब वह चाँदनी बेग़म के साथ अपने कमरे में थे, तो उन्होने उनसे भी इस बारे में बात की "सुनिये, आज वह फिरोज़ाबाद वाले खान साहब…..उन्होने हमसे कुछ ज़रूरी बात की थी.....हैदर की शादी की बाबत". चाँदनी बेगम ने कहा "हाँ, आज उनकी बेग़म जब हमारे पास बैठी हुई थीं, तो उन्होने भी अपनी बेटी ज़ीनत और हैदर के रिश्ते की बात की थी".
"तो आपने क्या कहा उनकी बेगम से?"
"मैंने तो यही कहा कि भाभीजी, अभी मैं कुछ कह नहीं सकती.....सैयद साहब ही कुछ फैसला करेंगे.....वैसे, आपने क्या कहा खान साहब से?"
"हमने तो यही कहा कि अभी शायद मिर्ज़ा तैयार नहीं हैं", और फिर सैयद साहब ने अपनी बेग़म को सारी बात बतायी जो कुछ उनके और खान साहब के दरम्यान हुई थी. फिर उन्होने अपनी बेग़म से पूछा "सही कहा न मैंने उनसे?.....कुछ गलत तो नहीं बोला होगा?". चाँदनी बेग़म मुस्कुरा कर बोलीं "आपने आज तक क्या कोई गलत बात किसी से बोली है जो अब बोलेंगे?....बिल्कुल सही बोला आपने उनको. हमारा बच्चा पढ़ने में सबसे बेहतर है…..तो उसको पढ़ाई पूरी करने का मौका तो देना ही चाहिये".
फिर सैयद साहब ने पूछा "वैसे आपको क्या लगता है?....मिर्ज़ा के लिये ज़ीनत कैसी रहेगी?"
"बहुत अच्छी रहेगी.....आपके जिगरी दोस्त की लड़की है वह, जाना-पहचाना और अच्छा खानदान भी है....और बहुत ज़हीन, शाइस्ता और बड़ों की बड़ी इज़्ज़त करने वाली प्यारी सी बच्ची है वह. फिर घर की सबसे बड़ी लड़की है वह, बिल्कुल अपनी जहाँआरा जैसी....तो घर-परिवार की ज़िम्मेदारियाँ भी ढंग से समझती होगी ही. मिर्ज़ा की पढ़ाई हो जाये पूरी, फिर हम लोग फिरोज़ाबाद जायेंगे बात करने के लिये".
"तो मिर्ज़ा को बता दिया जाये इस बाबत?.....मेरा मतलब कि कॉलेज वगैरह में उन्हें कहीं कोई दूसरी लड़की पसंद ना आ जाये.....अगर उन्हें पहले से पता रहेगा कि इस लड़की से उनकी शादी होनी है, तो उनके कदम बहकेंगे नहीं" सैयद साहब ने अपनी बेग़म से कहा.
"कैसी बात करते हैं सैयद साहब?...वो हमारे बच्चे हैं, और अल्लाह के करम से हमारे किसी भी बच्चे के कदम बहके तो नहीं आज तलक.....कॉलेज में तो जहाँआरा और फरीद भी पढ़े ही हैं आखिर....फिर भी अगर आप सही समझें तो मिर्ज़ा को बुलाकर बता दीजिये, कि उनकी पढ़ाई-लिखायी पर बेशक कोई रोक-टोक नहीं होगी, लेकिन इसके बाद उनकी शादी ज़ीनत से होगी". चाँदनी बेग़म ने बिल्कुल साफ बात की.
कुछ वक़्त बाद मिर्ज़ा को उनके वालदेन ने एक शाम अपने पास बुलाया और उनसे बात की. सैयद साहब ने उनसे कहा "मिर्ज़ा, अब ये तो आप जानते ही हैं कि आपकी बी.ए. पूरी हो चुकी है, और अब आप शादी के काबिल हो गये हैं.....इसी उमर में हमारी भी शादी हो गयी थी और, फिर हमने भी आपकी आपा जहाँआरा, रुखसार और आपके बड़े भाई फरीद और शाह की शादी भी इसी उम्र में की थी".
मिर्ज़ा ने 'हाँ' में सिर हिलाया.
"अब हम चाहते हैं कि आपका घर भी बस जाये...लेकिन इसके पहले हम आपकी राय भी लेना चाहते है. आप अपनी बात रखिये अगर रखना चाहें तो".
मिर्ज़ा ने बड़े अदब से कहा "अब्बू, शादी से हमें कोई उज़्र नहीं है लेकिन, अभी हम पढ़ना चाहते हैं.....बी.ए. के बाद हम एम.ए. भी करना चाहते हैं. कॉलेज में हमारे टीचर भी हमसे यही कह रहे थे".
चाँदनी बेग़म ने कहा "मिर्ज़ा, ऐसा बिल्कुल नहीं है कि हम आपकी पढ़ाई-लिखायी बीच में बंद करवा कर, आपकी मर्ज़ी के खिलाफ ज़बर्दस्ती आपकी शादी करा देंगे....हम केवल यह कह रहे हैं कि अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद आपको शादी करनी होगी.....और आपके लिये हमने लड़की भी देख रखी है.....वैसे ये एम.ए. कितने साल की होती है? बताइयेगा ज़रा?"
"जी, दो साल की" मिर्ज़ा ने जवाब दिया.
"हाँ, तो दो साल के बाद आपकी शादी आपके अब्बू के दोस्त, फिरोज़ाबाद वाले खान साहब की बड़ी बेटी ज़ीनत से होगी". चाँदनी बेग़म ने फरमान सुना दिया था.
"जी अम्मी. ठीक है". मिर्ज़ा ने सिर झुकाकर इस बात को क़ुबूल भी कर लिया था.
यमुना ने दास्तान आगे बढ़ाई "बी.ए. पूरी करने के बाद तुम्हारे अब्बू मिर्ज़ा हैदर ने सौघरा कॉलेज में एम.ए. (उर्दू) में दाखिला लिया. एम.ए. करने के दौरान ही मिर्ज़ा को अपने दोस्तों, कॉलेज के सीनियरों और अपने टीचरों से एक ऐसी नौकरी के बारे में पता चला जिसके लिये बहुत ज़्यादा लिखाई-पढ़ाई करनी पड़ती थी और कई हज़ारों लोगों में किसी एक-दो को ही वह नौकरी मिल पाती थी, लेकिन वह नौकरी इस मुल्क की सबसे अच्छी नौकरी हुआ करती थी जिसमे बेपनाह पैसा, अज़ीम शान-ओ-शौक़त और बेशुमार ताक़त और रसूख हुआ करता था. उसको आई.सी.एस. की नौकरी कहा करते थे, जिसको आम ज़बान में 'कलेक्टर' भी कहा जाता था. मिर्ज़ा ने खुद अपने घर में कितनी ही बार अपने अब्बू, आने-जाने वाले उनके दोस्तों और अपने भाइयों के मुँह से 'कलेक्टर' लफ्ज़ सुना था और यह भी सुना था कि वे लोग कभी सिर्फ 'कलेक्टर' नहीं बोलते थे बल्कि हमेशा 'कलेक्टर साहब' बोला करते थे. मिर्ज़ा के दिमाग पर धीरे-धीरे 'कलेक्टर साहब' बनने का नशा चढ़ चुका था".
"एम.ए. पूरी करते-करते मिर्ज़ा आई.सी.एस. के इम्तेहान की तैयारी शुरु कर चुके थे, लेकिन साथ ही वह जानते थे कि उनके वालदेन उनकी शादी करने को तैयार बैठे हुए हैं. इसी वजह से इम्तेहान की ढंग से तैयारी करने और अपनी शादी कुछ वक़्त और टालने के लिये मिर्ज़ा ने अपने वालदेन से बात करने का फैसला किया".
"मिर्ज़ा एक दिन अपने वालदेन के पास आये और बोले "अब्बू, अब मेरी एम.ए. भी पूरी होने वाली है...तो अब आप लोग ज़रूर हमारी शादी करना चाह रहे होंगे".
सैयद साहब ने कहा "बिल्कुल सही"
"लेकिन अब्बू, हम अभी शादी नहीं करना चाहते"
यह सुनकर सैयद साहब और चाँदनी बेग़म को बड़ा झटका लगा. वो लोग तो खान साहब से बात भी कर चुके थे, कि मिर्ज़ा की एम.ए. के बाद शादी होगी. अब वह उनसे क्या बोलेंगे? सैयद साहब ने मिर्ज़ा को डाँटते हुए पूछा "क्यों नहीं करनी शादी.....कहीं ऐसा होता है क्या कि लड़का अपने वालदेन से आकर बोले कि नहीं करनी शादी?"
"अब्बू ऐसा नहीं है कि हमें शादी नहीं करनी. ऐसा भी नहीं कि हमें कोई दूसरी लड़की पसंद आ गयी है. आपने जिस से शादी तय की है, हम उसी से करेंगे, लेकिन उसके पहले आपसे कुछ कहना चाहते हैं".
"बोलिये"
"अब्बू, कॉलेज में टीचर, मेरे दोस्त और सीनियर भी एक नौकरी की बड़ी बातें करते हैं....कहते हैं कि उस नौकरी से अच्छी इस मुल्क की कोई भी नौकरी नहीं है. उसको आई.सी.एस. या कलेक्टर कहते हैं, और वह नौकरी बहुत ज़्यादा लिखाई-पढ़ाई और मेहनत करने के बाद मिलती है. उस नौकरी के इम्तेहान के 3 बेशकीमती मौके मिलते हैं.....हम भी कड़ी मेहनत करके एक-दो दफा वह इम्तेहान देना चाहते हैं....आपसे वादा करते हैं कि उस इम्तेहान को देने के बाद हम आपकी पसंद की लड़की से शादी कर लेंगे. बस हमें वह आई.सी.एस. का इम्तेहान देने दीजिये, और तब तक शादी न कीजिये, यही इल्तजा है".
चाँदनी बेग़म परेशान होकर अपने शौहर की तरफ देख रहीं थीं, जो मिर्ज़ा की ओर देखकर मुस्कुरा रहे थे. सैयद साहब ने हँसते हुए कहा "मिर्ज़ा, बात तो आपकी सही है. उस नौकरी से अच्छी कोई नौकरी नहीं है....हम लोग भी कलेक्टर के आगे हाथ जोड़ कर ही खड़े होते हैं, लेकिन बेटा, उसके लिये बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी आपको, और उसमें भी कोई पक्का नहीं है कि आप कलेक्टर बन ही जायेंगे.....वह इतनी आसानी से मिलने वाली नौकरी नहीं है".
"जी अब्बू, लेकिन हम एक-दो बार कोशिश करना चाहते हैं....अगर नाकाम हुए तो अपने घर का कारोबार तो है ही, और अगर कामयाब हो गये तो सबसे ज़्यादा फायदा तो हमारे घर-परिवार का ही होगा". मिर्ज़ा ने अपनी बात बेबाक तरीके से रखी.
उनके अब्बू ने मुस्कुराते हुए कहा "ठीक है, तो हम खान साहब से बात करते हैं, कि वह दो साल और रुक जायें...लेकिन मिर्ज़ा, दो बरस से ज़्यादा नहीं. 2 साल बाद आप पच्चीस के हो जायेंगे, फिर तो शादी होगी ही". सैयद साहब ने साफ कहा.
"जी अब्बू" मिर्ज़ा के चेहरे पर मुस्कान खेल गयी, और वह कमरे से बाहर चले गये.
चाँदनी बेग़म ने गुस्से में सैयद साहब से कहा "ये सब क्या है?"
सैयद साहब हँस कर बोले "पढ़ाई-लिखायी का असर है ये....पढ़ने-लिखने से दिमाग खुलता है बेग़म".
"मतलब?"
"मतलब कि मिर्ज़ा जिस नौकरी की बात कर रहे हैं, यूँ समझिये कि किसी बादशाह सी नौकरी है वो....आज की तारीख में उस से ज़्यादा ताक़तवर, और पैसे, रुतबे वाली कोई दूसरी नौकरी नहीं है……हमारा पूरा कारोबार कलेक्टर की मर्ज़ी से ही तो चलता है. किसी भी ज़िले में वह सबसे बड़ा अफसर होता है.....लेकिन वह बनने के लिये कमर झुकानी पड़ेगी बेग़म, लेकिन अगर मिर्ज़ा वह बन गये तो समझिये जन्नत मिल जायेगी उनको....फिर मिर्ज़ा पढ़ने में तो हमेशा अव्वल ही रहे हैं, इस इम्तेहान को भी अव्वल लोग ही पास कर पाते हैं".
चाँदनी बेग़म ने पूछा "...तो फिर खान साहब को क्या जवाब देंगे?"
"जवाब क्या देना?.....जो सही बात है वही बतायेंगे. उनको कहेंगे कि मिर्ज़ा पढ़ने में काफी अच्छे हैं और कलेक्टरी के इम्तेहान की तैयारी करना चाहते हैं अगले दो साल, बस खान साहब तब तक रुक जायें.....उसके बाद हम ज़ीनत की शादी मिर्ज़ा से कर देंगे पक्का".
"तो कब करेंगे फोन उनको?"
"फोन नहीं करेंगे बेग़म.....ये सब बातें फोन पर करना ठीक नहीं है, खान साहब बुरा भी मान सकते हैं. हम और आप एक रोज़ वक़्त निकालकर खुद ही चलेंगे फिरोज़ाबाद".
फिर अगले कुछ दिनों में सैयद साहब और उनकी बेग़म खुद ही फिरोज़ाबाद गये, और काफी देर तक खान साहब और उनकी बेग़म को समझाया. अल्लाह के फज़ल से शुरुआत में थोड़ी हिचकिचाहट और ना-नुकुर के बाद खान साहब और उनकी बेग़म दो साल की मोहलत पर मान ही गये.
शफाक़त ने यमुना से पूछा "फिर क्या हुआ?"
यमुना ने बताया "फिर शादी की तरफ से बेफिक्र हो जाने के बाद तुम्हारे अब्बू ने बड़ी लगन से कलेक्टरी के इम्तेहान की तैयारी शुरु की. अगले साल मिर्ज़ा ने आई.सी.एस. का अपना पहला इम्तेहान दिया, और उसमे वह फेल हो गये थे. इम्तेहान के नतीजे से मिर्ज़ा काफी ग़मज़दा थे, लेकिन उनके अब्बू सैयद साहब ने उनका हौसला बढ़ाया "बेटा, काफी बड़ा इम्तेहान है ये, कोई आसानी से पास नहीं कर पाता इसे......लेकिन आप फिक्र ना करें, हम लोग तो हैं ही आपके साथ में. अभी आपके पास और भी मौके और वक़्त भी हैं. लेकिन आपको हम एक बात कहेंगे".
"जी अब्बू"
"आप हमारे और अपने भाईयों के साथ, कारोबार में भी हमारी थोड़ी-थोड़ी मदद करते रहिये....इस से पहले तो यह होगा कि आप नाकामी और मलाल के इस दलदल से बाहर निकलेंगे जिसमे अभी आप धँसे हुए हैं, आपके दिमाग का मिज़ाज कुछ बदलेगा......आगे इस से होगा यह कि आप धीरे-धीरे कारोबार के गुर भी सीखते रहेंगे जो आपको आगे काम आयेगा ही. बाकी अपनी लिखायी-पढ़ाई आप पूरे मन से जारी रखियेगा और अगले बरस फिर से इम्तेहान दीजियेगा".
मिर्ज़ा को सैयद साहब की यह सलाह सही समझ आयी थी. उन्होंने हामी भर दी और कहा "ठीक है अब्बू, कल से हम भी आपके साथ आपके दफ्तर जाया करेंगें, लेकिन आपकी तरह वहाँ 10 से 6 तक नहीं रहेंगे. हम दोपहर में 2 बजे तक वापस आ जायेंगे और यहाँ आकर अपनी पढ़ाई करेंगे".
सैयद साहब ने मुस्कुराकर कहा "जैसा आप सही समझें".
अगले दिन से अपने भाईयों और अब्बू के साथ, मिर्ज़ा हैदर ने उनके दफ्तर जाना शुरु कर दिया था.
सैयद साहब के एक बहुत पुराने दोस्त थे, अरमान अली, जिनके साथ मिलकर सैयद साहब ने अपने अब्बा का कारोबार सम्भालना शुरु किया था. तब से अब तक वह सैयद साहब के साथ ही काम कर रहे थे और उनकी हर मुश्किल में चट्टान की तरह उनके साथ खड़े रहते थे. धंधे में कितनी बार ही उतार-चढ़ाव आये लेकिन सैयद साहब ने हमेशा अली साहब को अपने साथ ही पाया. उनके ऊपर वह बहुत ज़्यादा भरोसा करते थे, और उन्हें भी अपने घर का एक सदस्य ही समझते थे. काफी सोच-समझकर सैयद साहब ने अपने बच्चों फरीद, शाह और मुराद को कारोबार की बारीकियाँ सिखाने का काम अली साहब को दिया था. अली साहब ने अपने बेटे सरवर को भी इसमें शामिल कर लिया था और ये चारों बच्चे अली साहब से पिछले 3-4 बरस से कारोबार के गुर सीख रहे थे. जब मिर्ज़ा वहाँ पहुँचे तो सैयद साहब ने उन्हें भी अली साहब के हवाले कर दिया. अब वहाँ पाँच बच्चे थे. मिर्ज़ा दोपहर में लौट आते थे जबकि बाकी के चारों शाम को ही वापस आते थे.
"धीरे-धीरे मिर्ज़ा भी कारोबार के सबक सीख रहे थे, मगर ज़्यादा ध्यान उनका पढ़ाई पर ही था. अली साहब भी इस बात को समझते थे और इसी हिसाब से दफ्तर में मिर्ज़ा की ट्रेनिंग भी चल रही थी" यमुना बता रही थी. उसने आगे कहा "..लेकिन देखो शफाक़त, काबिल इंसान हर जगह अपनी पहचान बना ही लेता है. बेशक मिर्ज़ा दोपहर ही लौट आया करते थे, और उनके भाई शाम को, लेकिन कारोबार को देखने-समझने की उनकी काबिलियत, उनके भाईयों से कहीं ज़्यादा थी. वह दफ्तर में कम ही वक़्त गुज़ारते थे, लेकिन उनका दिमाग तेज़ और नज़रें पैनी थीं और अली साहब जो भी समझाते उसे मिर्ज़ा खूब अच्छी तरह से समझते भी थे. उन पाँचों बच्चों में अली साहब से मिर्ज़ा सबसे ज़्यादा सवाल पूछा करते थे, और जब कभी अली साहब नहीं आते थे या फिर देर से आते थे, मिर्ज़ा अकेले ही पूरे दफ्तर और कारखाने में घूमा करते थे और कारोबार से जुड़ी अलग-अलग बातों को समझा करते थे. उस वक़्त अक्सर उनके हाथ में एक नोटपैड और कलम भी हुआ करती थी. मिर्ज़ा के काम करने के तौर तरीके देखकर अली साहब बड़े खुश होते थे और जब कभी सैयद साहब अपने बच्चों की ट्रेनिंग के बारे में पूछते, अली साहब खास तौर से मिर्ज़ा की तारीफ करते थे और कहते थे "एक अच्छे कारोबारी होने की सभी खासियतें उनमें बाकी बच्चों से कहीं ज़्यादा हैं सैयद साहब, यह बात तो माननी पड़ेगी....बस थोड़ा ध्यान उनको अपनी सोच पर देना चाहिये, जो कभी-कभी कुछ ज़्यादा सख्त और गैर-अमली हो जाती है. फरीद इस मामले में काफी सुलझे हुए हैं, लेकिन फिर कारोबार की बारीकियाँ वह उस तरह से नहीं समझ पाते जैसे मिर्ज़ा हैदर".
सैयद साहब भी इसकी मंज़ूरी में हँस कर सिर हिला दिया करते.
"हक़ीकत में तुम्हारे अब्बू मिर्ज़ा को अपने बड़े भाई फरीद की नरमदिली और नेकनीयती ज़्यादा रास नहीं आती थी. उनके मुताबिक़ इस से सामने वाला आपके ऊपर हावी हो जाता है और फिर चाहे कारोबार हो या फिर इंतज़ामियत, दोनों ही सही ढंग से चलाई नहीं जा सकती है. इन दोनों को ही अच्छी तरह से चलाने के लिये आपको ज़्यादा सख़्त होना पड़ेगा, ऐसा तुम्हारे अब्बू की राय थी. वह फरीद के देर से फैसला लेने और बहुत ज़्यादा सोच-विचार करने को उनकी कमज़ोरी मानते थे. वहीं दूसरी तरफ उन्हें मुराद का दिन भर शराब में डूबे रहना और अहमक़ों की तरह बैठे रहना कतई नापसंद था, और उनके मुताबिक़ इंसान को जी तोड़ मेहनत करनी चाहिये. इसी तरह वह शुज़ा की सुस्ती और लापरवाही को भी पसंद नहीं करते थे".
यमुना ने बोलना जारी रखा "अगले एक बरस तक रोज़ कारखाने जाकर मिर्ज़ा ने जहाँ कारोबार के गुर सीखे, वहीं अपनी लिखाई-पढ़ाई पर भी नये सिरे से और ज़्यादा मेहनत की. पिछले इम्तेहान में जिन वजहों से नाकामी मिली थी, दोबारा से उन पर काम किया, और फिर जब अगले बरस आई.सी.एस. का इम्तेहान दिया, तो मिर्ज़ा हैदर बेग़ कामयाब होकर निकले".
"अपने बेटे की इस कामयाबी पर उनके वालदेन के पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे. पूरे शहर में और आस-पास के ज़िलों में उनका नाम हो रहा था. उन्होने इसका जश्न मनाने के लिये, बाकायदा अपने घर पर एक जलसा रखा और अपने सभी दोस्तों को उसमें आने की दावत दी, और खास तौर पर फिरोज़ाबाद से खान साहब को उनके परिवार सहित बुलावा भेजा था. उनका सोचना था कि इसी जलसे में वे दोनो परिवारों की दोस्ती को रिश्तेदारी में बदलने का ऐलान करेंगे".
"जलसे के दौरान जब सभी लोग सामने बैठे थे, सैयद साहब ने स्टेज पर जाकर माइक हाथ में लिया और कहा "यहाँ महफिल में मौजूद सभी खवातीन-ओ-हज़रात!!....थोड़ा तवज्जो चाहूँगा आपसे....जैसा कि आप सभी जानते ही हैं कि आज का ये जलसा, हमारे बेटे मिर्ज़ा हैदर बेग़ की अज़ीम कामयाबी का जश्न मनाने के लिये रखा गया है. अल्लाह के करम से, हमारे बेटे ने पिछले कुछ बरसों में खूब मेहनत से पढ़ाई-लिखायी कर के मुल्क का सबसे बड़ा इम्तेहान, आई.सी.एस. का इम्तेहान पास किया है, और कलेक्टर बनने का एजाज़ हासिल किया है. आज उनकी कामयाबी के इस जलसे के मौके पर हम और हमारी बेग़म आप लोगों से कुछ कहना चाहते हैं". फिर सैयद साहब ने चाँदनी बेगम को अपने साथ स्टेज पर आने का इशारा किया. मुस्कुराते हुए उनकी बेगम स्टेज पर उनके पास जाकर खड़ी हो गयीं. सैयद साहब ने फिर कहना शुरु किया "हर माँ-बाप की ख्वाहिश होती है, कि सही वक़्त पर उसकी औलाद का घर बस जाये, और वह हँसी-खुशी अपनी आगे की ज़िंदगी अपने परिवार के साथ बिताये. हम भी इस से कोई अलग तो हैं नहीं....इसलिये अल्लाह के फज़ल से हमने अपने बेटे मिर्ज़ा की शादी, अपने पुराने अज़ीज़ दोस्त, फिरोज़ाबाद के जनाब अकरम खान और उनकी बेगम की बड़ी बेटी ज़ीनत के साथ करने का फैसला किया है, और यह बड़ी खुशी की बात है, कि आज इस मुबारक़ मौके पर खान साहब, अपने पूरे परिवार के साथ हमारी इस खुशी में बराबर के शरीक़ हैं" यह कहकर सैयद साहब ने खान साहब को परिवार के साथ स्टेज पर बुलाया और अपने बेटे मिर्ज़ा को भी वहाँ बुलाया".
"और इस तरह से नौकरी मिलने के तुरंत बाद ही मिर्ज़ा की शादी, ज़ीनत महल से हो गयी. मिर्ज़ा अपनी शरीक़-ए-हयात, ज़ीनत को बहुत प्यार करते थे. अगले 4-5 सालों में मिर्ज़ा हैदर दो प्यारे से बच्चों बहादुरशाह और सलमान के बाप भी बने".
"परिवार में कमोबेश सब कुछ अच्छा ही चल रहा था और मिर्ज़ा की शादी के अगले कुछ बरसों में सबसे छोटे बेटे मुराद की भी शादी करके सैयद साहब और चाँदनी बेग़म बड़ी राहत महसूस कर रहे थे".
"लेकिन जल्द ही परिवार का सामना एक बड़ी मुश्किल से हुआ. मुराद अली की शादी के तुरंत बाद ही उनकी वालिदा और सैयद साहब की हमदम चाँदनी बेग़म का दिल की बीमारी की वजह से इंतकाल हो गया था. अचानक परिवार पर नासिर हुए इस अज़ाब से सैयद साहब बुरी तरह टूट ही गये थे. बीते 40 सालों से चाँदनी हर कदम अपने शौहर के साथ थी, और हमेशा उनकी मज़बूत ढाल बनती थी जिसके आगे सारी मुश्किलें टकरा कर टूट जाया करती थीं. चाँदनी बेग़म एक धागे की तरह थीं जिसमें पूरा परिवार पिरोया हुआ था और यह माला काफी खूबसूरत लगती थी. अब उस धागे की गैर-मौजूदगी में माला बिखर सी गयी थी. सैयद साहब की दुनिया में जैसे अंधेरा ही छा गया था. बेग़म की मौत के बाद कई दिनों तक सैयद साहब ने खाने की थाली को हाथ भी नहीं लगाया था. ऐसा लग रहा था जैसे बेग़म की मौत से उन्हे भयंकर दिमागी सदमा लगा था. ऐसे में पूरे परिवार ने, और खास तौर पर बड़ी बेटी जहाँआरा ने उन्हें काफी सहारा दिया. वह अपने ससुराल से मायके अपने बच्चों के साथ और कभी-कभी शौहर के साथ भी अब दिन में 2-3 दफा आती-जाती थी. कुछ वक़्त बाद ये नौबत भी आ गयी कि जहाँआरा कई दिन तक अपने मायके में ही रहकर सैयद साहब की देखभाल करती रहती थी और बीच में कभी-कभी अपने ससुराल चली जाती थी. वह अपने अब्बा की सेहत, दवा और दिमागी हालत का भी काफी खयाल करती थी, जो चाँदनी बेग़म की मौत के बाद वाकई में काफी बिगड़ गयी थी. धीरे-धीरे जहाँआरा की इस देखभाल से सैयद साहब की हालत सुधरने लगी थी. वह अब कुछ ठीक ढंग से खाना-पीना भी कर रहे थे".
"अब हर कामयाब इंसान के दुश्मन हमेशा होते ही हैं, जो उस इंसान की किसी भी कमज़ोरी का फायदा उठाने से ज़रा भी नहीं चूकते. वे लोग अगर कुछ नहीं कर सकते तो बदनाम ज़रूर कर देते हैं. ऐसे ही कुछ दुश्मन सैयद साहब के भी थे ही...... और होते भी कैसे नहीं? कारोबार में न सिर्फ अपने बल्कि आस-पास के 3-4 ज़िलों में भी सैयद साहब का परचम लहरा रहा था, बल्कि मुराद अली को छोड़ दिया जाये तो भी सैयद साहब के दोनों बेटों ने बड़े अच्छे ढंग से कारोबार सम्भाला हुआ था और एक बेटा तो कलेक्टर ही था. इन सबकी वजह से सैयद साहब से रश्क करने वालों की तादात भी काफी थी".
"बेग़म की मौत के बाद सैयद साहब खासे कमज़ोर हो गये थे, और अभी भी उस झटके से उबरे नहीं थे, हाँलाकि बेटी जहाँआरा अपनी ओर से भरपूर कोशिश कर रही थी. इसी बीच ऐसे ही कुछ लोगों ने शहर में एक बात उड़ा दी थी कि चाँदनी बेगम के गुज़र जाने के बाद, और बेटी के मायके में बाप के ज़्यादा करीब रहने के दौरान बाप और बेटी के बीच मुहर्रमत से मुबाशरात कायम हो गये थे. बेटी जहाँआरा तो अब्बू की देखभाल करने के सिर्फ बहाने से ही मायके आया करती थी, जबकि असल बात कुछ और ही थी. बेगम के मरने के बाद सैयद साहब अकेले हो गये थे और यह अकेलापन दूर करने के लिये ही जहाँआरा आया करती थी जो अपने शौहर से खुश नहीं थी. दूसरे लोग जब कहते थे कि यह बिल्कुल वाहियात बात है और ऐसा तो हरगिज़ हो ही नहीं सकता, यह नामुमकिन है तब सैयद साहब के कारोबारी दुश्मन यही कहकर ठहाका लगाकर हँसते थे कि "क्यों नहीं हो सकता भाई?...क्यों नामुमकिन है?....आखिर जो पौधा सैयद साहब ने खुद लगाया है, खाद-पानी देकर इतना बड़ा किया है, अब इस उम्र में उसके फल खाने से उन्हें रोकना तो बेचारे सैयद साहब के साथ नाइंसाफी ही होगी....और वैसे भी, असर तो दिख ही रहा है, आखिर जनाब की तबियत तो सुधर भी रही है....."
शफाक़त ने यमुना को बीच में रोका "....मुहर्रमत से मुबाशरात....मतलब?"
यमुना ने कहा "इसका मतलब है कि बाप और बेटी के बीच नाजायज़ ताल्लुकात होना.....तुम्हारी अंग्रेज़ी में 'इंसेस्ट' कहते हैं इसे.....".
शफाक़त भड़क गया और उसने बड़े गुस्से में कहा "क्या?....इंसेस्ट?.....उन लोगों का मतलब दादाजी और जहाँआरा फुफी में....." फिर वह रुक गया, वह घिनौनी बात उस से आगे बोली नहीं गयी. फिर उसने इतना ही कहा "कैसे घटिया लोग थे वो....छि:!!....सुन के ही घिन आती है मुझे तो".
यमुना ने कहा ".....तुमने सुना है शफाक़त?....प्यार और जंग में सब जायज़ है....और फिर कारोबार भी एक जंग ही तो है. फिर सैयद साहब के परिवार की खुशहाली से जलने वाले भी कम नहीं थे. बुरा मत मानना शफाक़त, लेकिन असल में तुम इंसानों की ज़ात होती ही ऐसी है.......इंसान अपने ग़म से इतने दुखी नहीं होते जितने वह दूसरों की खुशी से ग़मज़दा होते हैं".
शफाक़त सुन रहा था.
"......बेग़म की मौत के करीब अगले 2 सालों तक सैयद साहब की हालत मोटे तौर पर खराब ही रही थी, लेकिन इस नाज़ुक दौर में उनके तीनों बेटों फरीद, मुराद और शुज़ा ने मिलकर कारोबार को गिरने नहीं दिया बल्कि मज़बूती से सम्भाले रखा था और, इस काम में अली साहब और सरवर उनका भरपूर साथ दे रहे थे. फरीद के हाथ में कमान थी लेकिन यह बात तो थी ही कि बिना अली साहब और सरवर की मदद के कुछ नहीं हो सकता था. अली साहब का तजुर्बा, इन नौजवान बच्चों के खूब काम आया. इसके साथ-साथ एक बात जो नज़रंदाज़ नहीं की जा सकती थी, वह थी सैयद साहब के लिये उनके स्टाफ की वफादारी. सैयद साहब, अली साहब और फिर फरीद ने अपने बर्ताव और सोच से अपने स्टाफ का दिल जीतने में कामयाबी हासिल की थी जिसका फायदा उन्हें इस नाज़ुक दौर में मिला जब इसकी सख्त ज़रूरत थी. उनके स्टाफ ने इस बुरे दौर में उनका काफी साथ दिया. इस तरह से उनकी बीमारी के वक़्त भी खुशकिस्मती से उनका कारोबार सही चलता रहा. अब काबिल औलाद, भरोसेमंद दोस्त और वफादार स्टाफ होने का ज़ाहिर तौर पर फायदा तो होता ही है......"
"".....मिर्ज़ा जो इस दौरान दिल्ली और आस-पास के ही ज़िलों में तैनात थे, हर 10-12 दिन पर घर आया करते थे और अपने अब्बू की सेहत और कारोबार की हालत का भी जायज़ा लिया करते थे. यही नहीं, कारोबार अधिक बेहतर और ज़्यादा मुनाफे वाला कैसे हो सकता है, इस पर भी अपनी बात रखा करते थे. अली साहब जानते थे कि मिर्ज़ा के अंदर इन मामलों की समझ अपने भाईयों से ज़्यादा है, इसलिये वह भी मिर्ज़ा की बातों को गौर से सुनते थे और उनकी सलाहों पर पूरा अमल करते थे. बीच-बीच में मिर्ज़ा अपने अब्बू और आपा को लेकर दिल्ली के बड़े अस्पतालों में, नामी डॉक्टरों के पास भी जाते थे, जिस से अब्बू जल्दी सेहतयाब हो सकें......"
फिर यमुना ने आगे दास्तान बढ़ाई "......इन सभी बातों का असर दिखने भी लगा था. चाँदनी बेग़म को गुज़रे अब करीब 10 बरस हो गये थे, और इन दस सालों में सैयद साहब अपनी बेटी और अपने बेटों के लगातार ध्यान देने की वजह से अब कहीं बेहतर हो गये थे और अपने सारे काम पहले की तरह निपटा रहे थे. खुशहाल और एक मज़बूत परिवार देखकर भी उन्हें बड़ा अच्छा लगता था. उनकी बीमारी के वक़्त भी उनका कारोबार सही चलता रहा था यह भी उनके लिये सुकून देने वाली बात थी. आस-पास के ज़िलों से आगे बढ़ते हुए उनकी कम्पनी अब लखनऊ तक कारोबार कर रही थी और अब चमड़े के सामान के साथ-साथ वह कपड़े भी तैयार कर रहे थे. मिर्ज़ा की सलाहों का भी कम्पनी को काफी फायदा हो रहा था......".
"......अब मिर्ज़ा को नौकरी करते हुए भी लगभग 10 साल से ज़्यादा हो रहे थे. अब 65 साल के हो चले सैयद साहब बीते कुछ अरसे से अपना कारोबार मुल्क के बाकी के शहरों, खास तौर पर बड़े शहरों जैसे दिल्ली, हैदराबाद, सूरत, जयपुर आदि में फैलाने की सोच रहे थे जहाँ अभी उनकी पहुँच नहीं थी और इस बाबत बात करने के लिये उन्होने अली साहब, सरवर और अपने तीनों बेटों फरीद, शाह, मुराद के साथ एक बैठक एक शाम इतवार को अपने घर पर की".
सैयद साहब ने उनसे कहा "देखिये, आज यहाँ हमने आप लोगों को एक ज़रूरी काम के लिये बुलाया है. पिछले काफी वक़्त से हमारे दिमाग में एक बात चल रही थी जिसे हम आपसे साझा करना चाहते हैं, और इस पर आपकी राय लेना चाहते हैं"
कमरे में मौजूद सभी लोग ध्यान से सुन रहे थे.
सैयद साहब ने कहा "इसमे कोई शक नहीं है, कि अलहमदुलिल्लाह आज हमारी कम्पनी काफी अच्छा कारोबार कर रही है. हमारे अब्बा हुज़ूर ने काफी पहले सौघरा में केवल 3 कमरों में, एक मामूली से जूते बनाने के कारखाने से शुरुआत की थी — हमने और अली साहब ने वह दौर भी देखा है -- और अल्लाह के रहम-ओ-करम से, बड़े-बुज़ुर्गों की दुआओं से और आप लोगों के साथ, और हमारे वफादार स्टाफ की मेहनत की बदौलत आज हम यहाँ से लखनऊ तक कारोबार कर रहे हैं. न सिर्फ हम बेहतर जूते बना रहे हैं, बल्कि चमड़े के और भी कई अच्छे सामान, और कपड़े भी तैयार कर के मार्केट में बेच रहे हैं, और अच्छा मुनाफा भी कमा रहे हैं. इन सब के लिये आप लोग बधाई के हक़दार हैं".
"लेकिन एक बात और है, वह यह कि कारोबार का बुनियादी उसूल है कि पैसे को चलते रहना चाहिये.....उसे एक जगह जमा होकर बैठ नहीं जाना चाहिये. इसलिये हम यह सोच रहे थे कि हमें हिंदुस्तान के बाकी शहरों, खास तौर पर बड़े शहरों जहाँ अब तक हम नहीं पहुँच पाये हैं, वहाँ भी अपने कारोबार के लिये मुमकिन सूरत तलाशनी चाहिये. हमें वहाँ इनवेस्ट करना चाहिये. .....बोलिये, क्या कहते हैं आप लोग?.....बिना हिचकिचाये बोलिये, आपकी राय पर ही हम आगे बढ़ेंगे."
अली साहब ने कहा "बिल्कुल सही फरमाते हैं आप सैयद साहब....हमें ज़रूर उन शहरों में बेहतर कारोबार करने के मौके तलाशने चाहिये...लेकिन यह काम धीरे-धीरे हो तो अच्छा है. पहले हमें दिल्ली और अलवर पर फोकस करना चाहिये, ये शहर हमारे नज़दीक भी हैं".
फरीद ने भी कहा "जी अब्बू, ठीक कह रहे हैं आप....बिजनेस तो बढ़ाना ही चाहिये अगर बढ़ सकता है तो".
अली साहब ने कहा "लेकिन एक बात है हुज़ूर, अगर आप गौर करें तो"
सैयद साहब ने कहा "जी अली साहब, कहिये"
"हमारा यह मानना है कि हमारे पास एक एडवांटेज है....और वह यह कि हमारा एक बच्चा इंतज़ामियत में ऊँचे ओहदे पर है. 10-12 साल नौकरी कर के अब वह एक सीनियर अफसर हो चुका है....हमारा ख्याल है कि हमें इस मामले में उसकी मदद ज़रूर लेनी चाहिये." अली साहब मिर्ज़ा की बात कर रहे थे.
"क्या मतलब?"
"मतलब यह जनाब कि मिर्ज़ा अब एक सीनियर आई.सी.एस. अफसर है.....अब आप तो जानते ही हैं कि किसी भी आई.सी.एस. अफसर के हाथ में कितनी ताक़त होती है, उसका कितना रुतबा होता है, और सबसे अहम बात कि उसके कितने बेहतरीन कारोबारी और सियासती ताल्लुक़ात होते हैं. इंतज़ामिया और सियासत में क्या चल रहा है, इन अफसरों को उसकी बिल्कुल अंदर तक की खबर होती है जो हम-आप नहीं जान सकते और न ही समझ सकते हैं....और इस बात से तो हम सभी खूब वाक़िफ हैं कि हमारे मिर्ज़ा हैदर के अंदर कारोबार की समझ कितनी गहरी है, न केवल आज से, बल्कि काफी पहले से ही. बीते 10 सालों में भी मिर्ज़ा ने लगातार कारोबार को लेकर हमें सलाह दी है और हमारी मदद की है और इसका हमें अच्छा खासा फायदा भी हुआ ही है. इस वजह से हमारा ख्याल है कि हमारा बिजनेस अब और आगे बढ़ाने में भी हमें मिर्ज़ा की मदद लेनी चाहिये. बीते 10-12 सालों में उनकी पोस्टिंग दिल्ली, जयपुर, सूरत, कानपुर, लखनऊ जैसे शहरों में रही है, अभी आजकल वह फिर दिल्ली में ही हैं. इसलिये मैं समझता हूँ कि मिर्ज़ा की वजह से हमारी कम्पनी को और ज़्यादा फायदा हो सकता है".
फरीद ने कहा "अली साहब बिल्कुल सही फरमाते हैं.....मिर्ज़ा के सियासती और कारोबारी ताल्लुक़ात का बेशक हमें काफी फायदा हो सकता है उन शहरों में अपना बिजनेस बढ़ाने में".
सैयद साहब ने कहा "तो ठीक है, अब आज तो मिर्ज़ा यहाँ हैं नहीं, लेकिन अगले हफ्ते-दस दिनों में वह आयेंगे, तब हम लोग एक बार फिर से बैठकर बात करते हैं".
"सौघरा शहर के, उर्दू ज़बान के एक बड़े नामी शायर-फलसफी थे हशमत क़ाशनी. वह सौघरा कॉलेज के उर्दू डिपार्टमेंट में प्रोफेसर थे. उर्दू व हिंदी ज़बान में कई बेहतरीन किताबें, नॉवेल वह लिख चुके थे, और अभी भी मुल्क के नामी अखबारों में उनकी शानदार नज़्में, कहानियाँ और आर्टिकल वगैरह छपा करते थे. केवल उनसे उर्दू पढ़ने के लिये ही सौघरा कॉलेज के उर्दू डिपार्टमेंट में बच्चे खूब दाखिला लेते थे. लखनऊ से दिल्ली तक के मुशायरों में उनकी तूती बोला करती थी. देश-ओ-दुनिया के कई अवार्डों से उन्हे नवाज़ा जा चुका था, और हिंदुस्तान के तमाम कॉलेजों में उर्दू साहित्य की पढ़ाई बिना हशमत क़ाशनी की किताबों के पूरी नहीं होती थी. सौघरा के लोग इस बात पर नाज़ करते थे कि हशमत क़ाशनी साहब उनके शहर में रहते हैं, और उनसे पढ़े बच्चे भी इसका बयान फख्र से करते थे कि उन्हे क़ाशनी साहब ने पढ़ाया है. उनके पढ़ाये कितने ही बच्चे सरकारी नौकरियों में अच्छे ओहदों पर भी काम कर रहे थे. न सिर्फ सूबे के बल्कि मुल्क के बड़े सियासतदान भी उनके आगे हाथ जोड़ते थे, और देखो तो यह सही भी है. राजा केवल अपने ही मुल्क में पूजा जाता है जबकि ज़हीन और पढ़ा-लिखा इंसान सारी जगह पूजा जाता है".
"लेकिन क़ाशनी साहब तल्ख़ तेवर के इंसान थे…..और शायद ऐसा हो ही जाता होगा. ज़्यादातर पढ़े-लिखे विद्वान और तखलीक़ी हुनर के मालिक, कलाकार लोग तल्ख़ तेवर के हो ही जाते हैं. वे अपनी आस-पास की चीज़ों को, अपनी अवाम की तक़लीफों, और उनके प्रति हुक़ूमत और सियासतदानों की बदइंतज़ामी, बेरुखी को देखते हैं, सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाते हुए अपने तलवे घिसती अवाम और दफ्तरों में कायम बदइखलाक़ी, बेईमानी को देखते हैं जिसकी वजह से उनको बुरा लगता है, और यह बात उनके काम, उनकी नज़्मों और कहानियों में नज़र आने लगती है. क़ाशनी साहब भी इसके परे नहीं थे. हुक़ूमत की बदइंतज़ामी, और सरकारी अफसरों, सियासतदानों की बदनीयती और बेरुखी उन्हें काफी बुरी लगती थी जिसकी वजह से वह उनकी खूब मलामत किया करते थे. वह अक्सर कहते थे—
"हर ज़ुल्म की तौफीक़ है ज़ालिम की विरासत,
मज़लूम के हिस्से में तसल्ली, न दिलासा".
"यही नहीं, वह अवाम की भी खासी खिंचाई किया करते थे, जो नासमझी दिखाते हुए, हमेशा ऊल-ज़ुलूल के मुद्दों पर वोट दिया करती थी और जब नाक़ाबिल लोग चुनकर दिल्ली और लखनऊ में पहुँच जाते थे, और अवाम की बेहतरी की बजाय अपनी जेबें भरते थे, तब यह अवाम ही उनकी बुराई किया करती थी. क़ाशनी साहब गुस्से में कहते थे "यह लोग हैं ही इस लायक. इन्हें ऐसे ही नुमाइंदे मिलने चाहिये. जो अवाम मुल्क के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझती, उसके साथ ऐसा ही होना चाहिये......अरे मुल्क किन से बनता है?....क्या पेड़-पौधों और चट्टानों से मुल्क बनता है?...या फिर गाय-भैंस, भेड़-बकरियों से?....क्या सरकारों और नुमाइंदों और अफसरों से मुल्क बनता है?......अरे मुल्क बनता है उसके लाखों-करोड़ों आम लोगों से. जैसे लोग होंगे, वैसा ही मुल्क होगा. ये लोग वोट किस पर देते हैं?....नासमझ भेड़-बकरियों की तरह मंदिर-मस्जिद पर और धर्म-जाति पर ही न?.....क्या कभी इन्होनें अपने बच्चों के लिये स्कूल-कॉलेजों, और अपने लिये बेहतर अस्पतालों की माँग की?......नहीं न?....हाँ तो फिर ठीक है बस......फिर क्यों रोना रोते हैं सब?......आपको स्कूल-कॉलेज, और अस्पताल नहीं चाहिये.....आपको मंदिर-मस्जिद चाहिये न?.....तो ले लो मंदिर-मस्जिद…..और खा लो उनको. मंदिर-मस्जिद से अगर आप लिखाई-पढ़ाई कर लो, अगर अपना घर-संसार चला लो, अगर वे बीमारी में तुमको ठीक कर दें तो ले लो मंदिर-मस्जिद…..जो क़ौम बिना सोचे-समझे अपने नुमाइंदे भेड़-बकरियों की तरह केवल मज़हब और जाति पर चुनती है, उसकी यही हालत होती है".
क़ाशनी साहब धर्म और जाति की सियासत को लेकर खासे आवाज़दार थे. उन्हे यह बात काफी बुरी लगती थी कि भोली-भाली अवाम को कैसे सियासतदान मज़हब और जाति की बात करके, केवल अपने सियासती फायदे के लिये, बाँट दिया करते थे, और अवाम का ध्यान बुनियादी मुद्दों से हटाकर फिज़ूल की बातों की तरफ घुमा दिया करते थे. मुशायरों, अपने इंटरव्यू, अखबारों में अपनी नज़्मों और कहानियों, और यहाँ तक कि कॉलेज में अपने लेक्चरों में भी क़ाशनी साहब इन बातों को बराबर सामने रखा करते थे. इस मामले में उनकी तुलना 14 वीं-15 वीं शताब्दी के सूफी संत कबीर से की जा सकती थी. वह सीधे कहा करते थे "हमारे नुमाइंदे कहीं आसमान से नहीं टपकते, वह हमारे बीच से ही आते हैं.......ऐसी कमअक्ल, अहमक़ अवाम वाला मुल्क कभी दुनिया में आगे नहीं बढ़ सकता है".
यमुना बता रही थी "......तुमको जानकर हैरानी हो सकती है शफाक़त, लेकिन क़ाशनी साहब बिना डरे हिंदू, मुस्लिम दोनों ही मज़हबों में कर्मकाण्डों, दिखावेबाज़ी, और इंतेहापसंदी की कड़ी मज़म्मत किया करते थे, और वह भी उस शहर में जहाँ 55 फीसदी आबादी मुसलमानों, और करीब 44 फीसदी आबादी हिंदुओं की थी. वह सीधे कहते थे कि इन्हीं वजहों से हमारी अवाम बँटी हुई है, यह एक नहीं हो पाती, और इसी का फायदा यह चालाक मौलवी, पुजारी और बाबा जैसे लोग, और सबसे बढ़कर ये सियासतदान, उठाते रहते हैं. क़ाशनी साहब हिंदू-मुस्लिम एकता और गंगा-जमुनी तहज़ीब जैसे सिद्धांतों के पुरज़ोर समर्थक थे. उन्होनें सैंतालीस का बँटवारा और उसका अंजाम अपनी आँखों से साफ-साफ देखा था, और इसी वजह से वह हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सियासतदानों और धर्मगुरुओं द्वारा किसी तरह की लकीर खींचे जाने के सख्त खिलाफ थे".
".....क़ाशनी साहब को लगातार उनके विचारों को व्यक्त करने के लिये हिंदू और मुस्लिम, दोनों मज़हबों के इंतेहापसंद लोगों से जानलेवा हमलों की धमकियाँ मिलती रहती थीं, लेकिन हो सकता है कि सौघरे की हवा-पानी और लोगों की इंसानियत में उनका भरोसा काफी मज़बूत रहा हो जिसकी वजह से वह डरते नहीं थे, और अपनी बातों को खुलकर सामने रखा करते थे. वह कहते थे "जी मैं तो देखो टीचर हूँ, अपना काम ही कर रहा हूँ....अब किसी को कोई दिक्कत है तो होती रहे. एक डरा हुआ टीचर एक मरा हुआ बच्चा तैयार करता है, और एक मरा हुआ बच्चा कभी भी एक ज़िंदा समाज और मुल्क तैयार नहीं कर सकता है.....मैं डरूँगा तो मेरा मुल्क, मेरा समाज मर जायेगा......"".
"सैयद साहब के तीन बच्चे, जहाँआरा, फरीद और मिर्ज़ा हैदर क़ाशनी साहब से कॉलेज में पढ़े थे और अपने टीचर पर उनको बड़ा गुमान था. जहाँआरा तो शादी के बाद अपनी पारिवारिक दुनिया में व्यस्त हो गयी थी और उनसे मिल नहीं पाती थी, मगर शायरी लिखते वक़्त वह हमेशा क़ाशनी साहब को याद करती थी. मिर्ज़ा भी पढ़ाई के बाद आई.सी.एस. की तैयारी करने लगे थे, और फिर इम्तेहान पास कर के सरकारी नौकरी में व्यस्त हो गये थे, लेकिन फरीद क़ाशनी साहब के बहुत बड़े प्रशंसक थे, और अपनी कॉलेज की पढ़ाई के खत्म होने, और शादी-बच्चे होने के बाद भी लगातार क़ाशनी साहब के सम्पर्क में रहते थे. लगभग हर गजटेड छुट्टी के दिन और हर इतवार को शाम को 5-6 बजे फरीद नियम से क़ाशनी साहब के घर जाते थे और चाय पर दोनों, उस्ताद और शागिर्द घण्टों दुनिया भर की बातें किया करते थे. उनकी बातें शेर-ओ-शायरी से शुरु होकर, घर-परिवार-समाज, मज़हब, हिस्ट्री, फिलॉसफी, सूबे और मुल्क के हालात, सियासत, अर्थव्यवस्था से होते हुए हिंदुस्तान-पाकिस्तान और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की उठापटक तक जाती थीं और अँधेरा होने तक चलती थीं. ज़िंदगी का शायद ही कोई पहलू उनकी बातों से बचा रहता हो. क़ाशनी साहब को भी फरीद का अपने घर आना और दुनिया भर के मुद्दों पर अक़्ली गुफ्तगू करना बड़ा अच्छा लगता था".
"इस तरह से फरीद के ऊपर क़ाशनी साहब का खासा असर था, और यह बात उनकी सोच और काम-काज, उनकी शख्सियत में साफ झलकती भी थी. क़ाशनी साहब की वजह से ही फरीद का झुकाव सूफी इस्लाम की तरफ था. वैसे अगर मज़हबी झुकाव की बात की जाये तो सैयद साहब के घर में बड़ा दिलचस्प माहौल था. खुद सैयद साहब अपने अब्बा की तरह ही सुन्नी हनाफी पंथ को मानने वाले थे, जो सूफी इस्लाम के ज़्यादा नज़दीक था. बड़ी बेटी जहाँआरा को बड़े बेटे फरीद की तरह ही सूफी इस्लाम ज़्यादा रास आता था. रुखसार और मिर्ज़ा हैदर पूरे मन से परम्परागत सुन्नी इस्लाम को ही मानते थे, जबकि शाह का झुकाव दरअसल शिया इस्लाम की ओर कुछ ज़्यादा था. सबसे छोटे बच्चे मुराद को किसी मज़हबी झुकाव से कोई मतलब नहीं था. उसे सिर्फ अपने व अपने परिवार के लिये ढेर सारे पैसों के साथ-साथ शिकार, अच्छा खाना और शराब के शौक़ पूरे होने से ही मतलब था".