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उलझे पंथ

उलझे पंथ

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पिता के रोब के आगे नौकरी पेशा बड़े हो चुके बेटे भी उनके सामने इज़्ज़त के साथ अदब से पेश आते थे, क्या मजाल कि उनके सामने कोई ऊँची आवाज में किसी से बात करे। बेटों मे इतनी हिम्मत नहीं थी कि उनके सामने अपनी पत्नी से बात करें या उनके पोतों को ही डाँट भी सके। संस्कारी इतने कि पत्नी व बहुओं से भी वो आप कह कर बात करते थे। बेटों से ज्यादा पोते बाबा दादी को प्यारे थे पर आज भोजन के समय घर में घमासान मचा हुआ था। बच्चों की प्यारी दादी इस घमासान का मन्द मन्द मुस्कान के साथ आनन्द उठा रही थी।

माँ, चाची और ताई रसोई मे लगी हुई कनखियो से रसोई के बाहर खाने की मेज की तरफ ताक रही थीं। देखे इन आपस में उलझे बच्चों की बातों का बाबा क्या निर्णय करते हैं। बाबा के कुर्सी पर बैठते ही बच्चों ने अपनी बात बाबा के सामने रखी, “बताइये बाबा आप हममें से किसको ज्यादा प्यार करते हैं, हमको करते हैं ना सबने एक स्वर में अलग अलग कहा।”

बाबा ने कहा, “हम सबको एक बराबर प्यार करते हैं।“

पर बच्चे थे कि मानने को तैयार ही ना थे। तभी मेज पर रखी पाँच भोजन थालों में से तीन को बाबा ने किनारे किया और एक कटोरी अलग से मँगाई और कहा, “अब से एक थाली मे दो लोग खायेंगे “सबसे बड़े और सबसे छोटे को एक थाली के पास बैठाया और बीच वाले दोनों पोतों को एक साथ। दोनों थालों की मिला कर चार कटोरियों मे दाल परसवाई और बची में सब्जी।

सबकी कटोरी में से दाल लेकर अपनी कटोरी में डाली और कहा देखो हम सबको प्यार करते हैं। दोनों थालियों से रोटी ले कर एक एक लुक्मा सब्जी और दाल से लगाते हुये उन्होंने सभी बच्चो के मुँह में डाला और फिर सभी बच्चों ने भी अपने नन्हे हाथों से निवाला बना कर बाबा और दादी को खिलाया। बच्चों में सुलह हो चुकी थी। उलझे पंथ सुलझ चुके थे। रसोई में भी तीनों बहुएँ मिलकर रोटियाँ सेकती हुई भोजन परोस रही थीं। हर तरफ ख़ुशियों की बयार बह रही थी।


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