हॉफपैंट -फुलपैंट
हॉफपैंट -फुलपैंट
छुटके से थे। न पास में पैसे, न बंगला, न गाड़ी। बस का एक रूपया बचाने के लिए एक स्टॉप पैदल ही चल लेते थे। जन्मदिन मीठी पूरी बना कर ही मना लिए जाते थे। दिन भर पार्क में झूले झूल काट लेते थे। भाई बहनों के साथ मिल खुद ही गीत संगीत और नाटकों की महफ़िल सजा लेते थे। माँ से सर पर तेल लगवाने के बहाने रोज़ कहानी सुनते थे। स्कूल के जूतों में ही शादी के समारोह के भी मजे ले लेते थे। पच्चीस पैसे की दूध वाली आइसक्रीम महंगी लगती थी सो दस पैसे के ऑरेंज बार को ही मजे से चूसते थे। गर्मी की छुट्टियां गिट्टे, पिट्ठू , लूडो, साँपसीढ़ी और शतरंज खेल कर बिता देते थे। शाम को दूध लाने के बहाने दोस्तों के साथ बाजार के चक्कर लगा लेते थे। बन्दर और भालू की कलाबाजियां ही काफी होती थी मन बहलाने के लिए। पूरे हफ्ते रविवार का इन्तजार करते थे और उस दिन समझ में न आने वाली दिन में दिखाई जाने वाली दक्षिण भारत की फिल्म भी बड़े मजे से देखते थे। बिजली जाने पर सब बच्चे बाहर निकल छुपम छुपाई खेल लेते थे। दस पैसे में किराये की कॉमिक्स ले कर पढ़ लेते थे। रात को भाई बहनो के साथ गप्पे मारते रहते थे और पिताजी के आ कर डांटने पर ही सोते थे। स्कूल में खूब फुटबाल, क्रिकेट खेलते थे। पास में पैसे नहीं थे फिर भी कितने खुश थे।
अब बड़े हो गए हैं। घर से ऑफ़िस और ऑफ़िस से घर। जेब में पैसों की कमी नहीं है। अब अपनी खुशी से नहीं डॉक्टर की सलाह पर चलते फिरते हैं।अकेले, एकाकी। वो संगी , साथी , दोस्त -सब पीछे छूट गए हैं।
कपड़े तो हाफ पैंट से फुल पैंट पर आ गए हैं।
लेकिन अफ़सोस कि जिंदगी जो बचपन में फुल थी अब हाफ भी नहीं रही।