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नियामतें

नियामतें

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स्कूल की प्रार्थना सभा अभी शुरू होने वाली थी। बच्चे लाइन में लग गए थे। अध्यापक लाइनों के आगे खड़े उनका मुआयना कर रहे थे। तभी मुझे छठी कक्षा की लाइन में एक लड़की रोती हुई दिखी। लड़की बार बार अपनी आंखें अपनी यूनिफार्म के दुपट्टे से पोंछ रही थी। उसकी शक्ल भी रोने की वजह से कुछ सूजी सी लग रही थी। मैं उसके पास गया और उसके सिर पर हाथ रखकर पूछा।

"क्या हुआ बेटे, क्या बात है, रो क्यों रही हूँ ?...क्या किसी ने कुछ कहा, क्या तुम्हारा पेट या सर दर्द कर रहा है ?"

लड़की ने कोई उत्तर नहीं दिया, वो फुट फूटकर रोने लगी। मोटी, नाटी, प्यारी,मासूम सी बच्ची...जैसे मेरा दिल उसे रोता देख पसीज गया। मैं उसे लाइन से बाहर निकाल क्लासरूम में बिठा आया और एक पानी का गिलास मंगवाकर पीने के लिए दिया। उसे दोबारा प्यार और सहजता से पूछा तो उसने बताया कि उसका छोटा भाई जो केवल छह महीने का था ,बीमार था। मुझे लगा कि कोई बड़ी बात नहीं।

मैंने उसे समझाते हुए कहा,

"बच्चे अक्सर बीमार होते रहते हैं और ठीक हो जाते हैं। घबराओ मत, डॉक्टर दवा देगा और तुम्हारा भी ठीक हो जाएगा।" पर मेरी बात सुनकर वो और रोने लगी। उसने कहा कि गांव के डॉक्टर से दवा ली थी, पर उसने जिला हस्पताल में भेज दिया था। वहां एक हफ्ता दाखिल रहा और अब वहां के डॉक्टर ने भी आगे सबसे बड़े अस्पताल में भेज दिया है। भाई को नमूनिया हो गया है और पाइपों से उसके फेफड़ों से पानी निकालना पड़ता है।"

उसका दर्द सुनकर मेरी आँखें भी भर आईं। जैसे मुझे अपना एक पुराना दर्द याद हो आया।तभी प्रार्थना सभा के समाप्त होने की घण्टी बज गई। क्योकि आज मुझे इसी लड़की की क्लास में ही आना था इसलिए मैं वही बैठा रहा। मेरे अंदर जैसे भावनाओं की लहरें तेज गति से आ जा रही थीं। मेरा हृदय और बुद्धि एक दूसरे के साथ संघर्ष कर रहे थे। भावुकता और सहजता के बीच उलझा मेरा मन और शरीर सन्तुलन बनाने की कोशिश में जुटा था।

प्रार्थना सभा समाप्त होने के बाद सभी बच्चे कक्षाओं में वापिस आ गए थे। हम अध्यापक भी अपना हाजिरी रजिस्टर उठाकर अपनी अपनी कक्षा में चले गए।

मैं कक्षा में बैठा अभी भी सामने बैठी उस उदास लड़की की तरफ देखता हुआ सोच रहा था कि बाकि बच्चों के सामने उसे कैसे सहज करूँ।

मैंने सभी विद्यार्थियों की हाजिरी लगाने के बाद कहा,"बच्चों आज हमारी एक छात्रा उदास है,उसका छोटा भाई बीमार है,आओ हम सब मिलकर भगवान से प्रार्थना करें कि इसका भाई जल्दी ही स्वस्थ होकर वापस घर लौटे और इसके साथ खूब खेले।"

मैंने सभी बच्चों को हाथ जोड़कर और आंखे बंद करके प्रार्थना करवाई तथा बच्चे की कुशल मांगी। सभी ने जैसे छोटे बच्चे के दुख को जान लिया हो। बच्चों ने चुपचाप प्रार्थना की। लड़की की आंखें बंद थी और उन बन्द आखों से भी आसूं गिर रहे थे।

मैं उस दिन जैसे मौन के समुद्र में डूबा रहा। एकांत में बैठा उस बच्चे के लिए प्रार्थना करता उसकी कुशल की प्रार्थना करता रहा।

कितना आसान होता है दूसरे के दर्द में उसको हौंसला देना पर जो खुद दर्द झेल रहा हो,उसकी पीड़ा बड़ी मुश्किल से दूर होती हैं।आखिर ऐसा क्या है पूरे जीवन मे जो सबसे ज्यादा जरूरी है ?शायद मैंने ये जाना है कि दुनिया की सबसे बड़ी अमीरी स्वस्थ शरीर है। "जीते रहो "का आशीर्वाद जो हमें बड़े बुजुर्ग देते थे उसका अर्थ बड़ा गहरा है।

ये मैंने तब जाना जब मेरा बेटा एक साल का था। उसकी गर्दन पर कान के नीचे अचानक एक गांठ उभर आई। डॉक्टर को दिखाया तो उसने मामूली इंफेक्शन बताकर पांच दिन की दवा दी पर वो गांठ सख्त रही और नरम नहीं पड़ी। डॉक्टर ने जिले के अस्पताल में दिखाने को कहा। बच्चा रात को शायद दर्द के कारण सोता नहीं था और रोता रहता था। दवाइयों के कारण उसकी भूख भी कम हो गई थी। लगभग एक महीना दवा खाने के बाद भी उसे कोई आराम न हुआ। मैं और सारा परिवार चौबीसों घण्टे मानसिक तौर पर परेशान रहते थे और हमारे मन मे एक भय था जिसका खुलासा हम न करते पर एक दूसरे की आंखों में जैसे उस डर को पढ़ लेते। ये डर था कैंसर का जिसके कारण साल भर पहले ही मैंने अपनी मां को खोया था। उसकी छाती में गांठ थी। जो बाद में कैंसर निकली। पूरा एक साल ऑपरेशन,मंहगी दवाएं,उन के कारण माँ की बढ़ती खीझ और पिताजी की चिंता जैसे पूरे घर मे व्याप्त थी। जैसे हम सब धीरे धीरे रोज मर रहे थे। जीवन की सभी कामनाएं,इच्छाएं,और सपने शून्य हो गए थे। लगभग एक साल की इस यंत्रणा के बाद मां नहीं रही। कितना समय हमें सहज होने में लग गया।हम सब अब शरीर मे कभी जरा सी फुंसी फोड़ा देखकर भी चिंता से भर जाते और अपने मन को समझ बुझा कर डरते हुए इलाज करवाते। माँ की मृत्यु के बाद आस पड़ोस,अखबार से कितने ही लोगों को कैंसर होने के समाचार हमने सुने, मृत्यु देखी,परिवारों को इससे जूझते देखा पर हर कोई क्रिकेटर युवराज सिंह जितना भाग्यशाली नहीं था।

तो मेरे बेटे की गले की ये गांठ मुझे दिन रात परेशान करती और मैं अपने आप को,अपनी पत्नी को यही समझाता कि सब ठीक हो जाएगा और ऐसी कोई बात नहींं। खैर अंततः डॉक्टर ने उस गांठ का स्पेशल टेस्ट करवाने के लिए हमे कहा। ये वही टेस्ट था जो कैंसर की पहचान के लिए करवाया जाता है। डॉक्टर की बात सुनकर मैं जैसे टूटी हुई माला की तरह बिखर से गया। पर टेस्ट तो करवाना था। ईश्वर,भगवान,याद किये हुए मन्त्र सब मैंने दुहराए,मन ही मन अपने किसी अनजाने पाप की सजा बच्चे को न देने के लिए कहा।

टेस्ट हो गया। रिपोर्ट एक घण्टे बात मिल ही जानी थी। मैं जैसे एक एक पल में सालों मर रहा था, पूरी कायनात में एक ही इच्छा थी कि मेरा बेटा तंदुरुस्त हो उसे कोई भयंकर बीमारी न हो।

खैर टेस्ट रिपोर्ट आई तो हमें जैसे एक उम्मीद मिल गई। टेस्ट में कुछ भी ऐसा नहीं था जो परेशान करने वाला हो ,मैंने ईश्वर का बारम्बार धन्यवाद किया। टेस्ट की रिपोर्ट चेक करने वाली डॉक्टर ने कहा कि आजकल ये टेस्ट नॉर्मल हो गया है और जरूरी नहीं कि कोई गंभीर बीमारी हो। बहुत से बच्चे इस तरह के केस में आये हैं और एंटी बायोटिक लेकर ठीक हो गए हैं।

मेरा मन जैसे उम्मीद से भर गया था। हफ्ते में ही बेटे गांठ नरम पड़ गई और उसकी पस निकल गई। दवाइयों के असर के असर से बेटा कमजोर हो गया था,उसे लगभग एक साल भयंकर कब्ज से लड़ना पड़ा। लेकिन आज इस बात को जब आठ साल बीत गए हैं सब ठीक है।

जीवन अच्छा खासा बीत रहा हैं। पर एक सबक है जो हमेशा मन मे कौंधता रहता है तब,जब मैं किसी छोटी मोटी बात को लेकर निराश होता हूँ। ये सबक है जिंदगी को जिंदाबाद कहने का। सभी भौतिक चीजों की प्राप्ति की तड़प में न जीकर इस बात के लिए जीने का कि दूसरों के दुख दर्द में उनका हौंसला बनाये रक्खें और एक ही कामना करें कि हम स्वस्थ और प्रसन्न रहे, ये दो नियामतें ही सबसे ज्यादा जरूरी है, बाकी सब कुछ अपने आप ही मिल जाता है।


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