इंडियन फ़िल्म्स - 1.2
इंडियन फ़िल्म्स - 1.2
जब मैं सात साल का था, तो स्कूल जाने लगा। हमारी टीचर का नाम था रीमा सिर्गेयेव्ना। तो, पहले ही दिन, पहली ही क्लास में, वह बोलीं:
“हमारी क्लास – ये एक जहाज़ हैi, जिसमें बैठकर हम ज्ञान के सागर में निकल पड़े हैं। क्या कोई कैप्टेन बनना चाहता है?
और ख़ुद मेज़ पर रखे कुछ कागज़ों को इस तरह उलट-पुलट करने लगी, जैसे उसे पक्का मालूम, कि कोई भी ज्ञान के जहाज़ का कैप्टेन नहींं बनना चाहता। मगर मैं तो हमेशा से कैप्टेन बनना चाहता था। हाँलाकि,ज्ञान के जहाज़ का तो नहीं, मगर बेहतर होता कि किसी दूसरे जहाज़ का कैप्टेन बन जाता,मगर अगर सिर्फ यही जहाज़ सामने है, तो क्या कर सकते हो।
“मैं बनना चाहता हूँ कैप्टेन!” मैंने कहा।
रीमा सिर्गेयेव्ना ने अचानक पूछा:
“मगर, क्या तुम कठिनाइयों और संदेहों की लहरों का मुकाबला करते हुए जहाज़ को निर्दिष्ट दिशा में ले जा सकते हो?क्योंकि ज्ञान का सागर – एक गंभीर, भयानक चीज़ है!”
इससे साफ़ पता चल रहा , कि उसकी राय में, मैं न सिर्फ ये, बल्कि कुछ भी करने के काबिल नहींं हूँ। वह कह रही थी, और अपने लिपस्टिक को ठीक-ठाक कर रही थीं। वहाँ कुछ चिपक गया था।
“ठीक है, रीमा सिर्गेयेव्ना,” मैंने अपनी बात जारी रखी, “मैंने आपके उस सवाल का जवाब तो दिया था कि लेनिनग्राद को लेनिनग्राद क्यों कहते हैं! क्योंकि ‘ग्राद’ – इसका मतलब पुराने ज़माने में होता था शहर’! मैं जहाज़ भी मैनेज कर लूँगा, आप परेशान न हों।”
“नहींं, मैनेज नहींं कर पाओगे,” न जाने क्यों उसने बहुत ख़ुशी से कहा,और बात ख़त्म हो गई। उसकी लिपस्टिक पूरी ख़राब हो , और मैं समझ गया मैं कैप्टेन नहींं बनूँगा। मगर बाद में पता चला कि कैप्टेन बनेगी ख़ुद रीमा सेर्गेयेव्ना। मगर किसी भी किताब में और किसी भी फ़िल्म में कैप्टेन डेक पर लिपस्टिक ठीक नहींं करतीं। औरवो भी सेलर्स के सामने!
जब मैं आठ साल का था, तो मैंने टेलिविजन पे एक ख़त लिख, जिसमें ये विनती की थी, कि दॉन किहोते के बारे में फ़िल्म दिखाएँ। मैं नहींं जानता था,कि दॉन किहोते कौन है, मगर नार्सिस अंकल से (ये भी मेरे पापा के एक दोस्त हैं) बातचीत के दौरान पता चला, कि दॉन किहोते मुझसे बहुत मिलता जुलता है।
नार्सिस अंकल के साथ बातचीत किचन में हो रही थी। नार्सिस अंकल मरम्मत के काम में पापा की मदद कर रहे थे, और चाकू से वॉल-पेपर खुरच रहे थे। वो खुरच रहे थे, और कह रहे थे, कि ये दीवार समतल है, जैसी हमारी ज़िंदग, और ऐसा कहते हुए मुस्कुरा रहे थे, जैसे कोई बड़ी ज्ञान की बात कह रहे हों। मैंने भी एक छेनी उठाई और वॉल पेपर खुरचने लगा। मैं चाहता था कि एक ही बार में जितना हो सके उतना ज़्यादा खुरच दूँ मगर अंकल नार्सिस ने कहा, कि इस तरह से वॉल-पेपर खुरचते हुए मैं इस दीवार से उसी तरह संघर्ष कर रहा हूँ, जैसे दॉन किहोते ने विण्ड-मिल से किया था।
“और, इसका क्या मतलब है: विण्ड-मिल से संघर्ष करना? और दॉन किहोते कौन था? कहीं ये शांत-दोन ही तो नहींं?” - कित्ती सारी बातों मे मैं दिलचस्पी ले रहा था।
“कम ऑन, बेटा!” अंकल नार्सिस हँस पड़े। “‘शांत दोन’ – ये एक नदी है, जबकि दॉन किहोते – सूरमा। क्योंकि कोई था ही नहींं जिससे वह लड़ सके,इसलिए उसने विण्ड-मिल के ख़िलाफ़ संघर्ष किया” और नार्सिस ने एक बड़ा टुकड़ा निकाल , फिर से चहकते हुए, कि दीवार वैसी ही समतल है, जैसे ज़िंदगी।
कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद वो आगे कहने लग,हालाँकि अब मैं कुछ पूछ नहींं रहा था:
“विण्ड-मिल से संघर्ष करना - इसका मतलब है, बिना सोचे समझे अपनी ताकत व्यर्थ गँवाना। छेनी के बदले चाकू ले और शांति से खुरच। वर्ना तो तू दॉन किहोते की तरह बन जाएगा, जिस पर दुल्सेनिया तोबोसो हँसी थी।”
“ये और कौन है?”
“ये एक महिला थी, ऐसी, ख़ास!!!” यहाँ अंकल नार्सिस स्टूल से गिरते गिरते बचे, जिस पे वो खड़े थे, और ये ध्वनि ‘ख़ास’ –ज़ाहिर है, इसीने उनकी अपने आपको संभालने में मदद की। वो संभल गए, और इस तरह आगे कहने लगे, जैसे कुछ हुआ ही न हो: “दॉन किहोते हर जगह उसका पीछा करता था, जिससे उसकी रक्षा कर सके, मगर वो उससे दूर भागती थी, नहींं चाहती थी कि कोई उसकी रक्षा करे।
इसके बाद नार्सिस ने मुझे दॉन किहोते के बारे में किताब पढ़ने की सलाह दी। मगर मुझे पढ़ना अच्छा नहींं लगता इसलिए मैंने सोचा कि दॉन किहोते के बारे में फ़िल्म देखना अच्छा रहेग, और मैं टीवी वालों को ख़त लिखने बैठ गया। सीधे चैनल -1 को।
“नमस्ते!” मैंने लिखा। “आपको वोलोग्दा का एक स्टूडेण्ट लिख रहा ह, जिसका नाम कोन्स्तांतिन है। अगर मुश्किल न हो, तो दॉन किहोते के बारे में फ़िल्म दिखाएँ। किसी भी दिन,मगर बहुत देर से नहींं, जिससे मैं रात को आराम से सो सकूँ। अगर आपके पास ये फ़िल्म नहींं है, तो कम से कम ‘शांत दोन’ के बारे में ही दिखा दें, जिससे मैं समझ सकूँ, कि दोनों में फ़र्क क्या है”।
तारीख डाल दी और हस्ताक्षर कर दिए।
औ, उन्होंने ‘शांत दोन’ के बारे में फ़िल्म दिखा दी। ये सही है,कि एकदम नहींं, बल्कि साल भर के बाद। मगर, चलो, ठीक है, ख़ास बात ये ह, कि अब मैं जानता हूँ, कि ‘शांत दोन’ क्या है – ये वहाँ है, जहाँ कज़ाक लड़ाई-झगड़े करते हैं। मगर फ़िर वो शांत’ कैसे हुई? तर्क की दृष्टि से देखा जाए, तो उसे ‘कोलाहल भरी’ होना चाहिए। सुनने में भी अच्छा लगता है: ‘कोलाहल भरी दोन’ और ये ज़्यादा ईमानदार भी है।
जब मैं दस साल का थ, तो मैं तीसरी क्लास में पढ़ रहा था और हम अपनी पसंद के किसी भी विषय पर निबंध लिखते थे। मैंने प्यार के बारे में लिखने का फ़ैसला किया और लिख दिया।