Charumati Ramdas

Children Stories

4  

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चुक और गेक - 4

चुक और गेक - 4

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लेखक: अर्कादी गैदार                                                                               

अनुवाद: आ. चारुमति


जब गेक जागा, तो पहिये खामोशी से, बिना बातें किये कम्पार्टमेंट के फर्श के नीचे टक -टक कर रहे थे. बर्फ जमी खिड़कियों से सूरज चमक रहा था. बिस्तर ठीक कर दिए गए थे. नहाया-धोया चुक सेब खा रहा था. और मम्मा और मूंछों वाले अंकल खुले हुए दरवाजों के सामने गेक के रात के कारनामों के बारे में बातें करते हुए ठहाके लगा रहे थे. चुक ने फ़ौरन गेक को पीले कारतूस की नोक वाली पेन्सिल दिखाई जो फ़ौजी अंकल ने उसे गिफ़्ट में दी थी.

मगर गेक को चीज़ों से कोई लगाव नहीं है और वह लालची भी नहीं है. वह बेशक, भुलक्कड़ और बुद्धू था. न सिर्फ वह रात को औरों के कुपे में घुस गया था – अभी भी उसे याद नहीं आ रहा था कि उसने अपनी पतलून कहाँ घुसेड़ दी थी. मगर वह गाने गा सकता था.

हाथ-मुँह धोकर और मम्मा को नमस्ते करके वह ठन्डे कांच से माथा सटाकर बैठ गया और देखने लगा, कि यह कैसा प्रदेश है, यहाँ लोग कैसे रहते हैं और क्या करते हैं.

और जब चुक एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े पर जाकर मुसाफिरों से मिल रहा था, जो उसे खुशी-खुशी कोई न कोई चीज़ गिफ़्ट में दे रहे थे – कोई रबर का कॉर्क , कोई कील, कोई मुड़ी हुई सुतली का टुकड़ा – गेक ने खिड़की से बाहर काफी कुछ देख लिया था.

ये रहा जंगल का छोटा सा घर. बड़े-बड़े नमदे के जूतों में, एक कमीज़ पहने और हाथों में बिल्ली लिए एक लड़का उछल कर पोर्च में आया. त्राख!- बिल्ली फूले-फूले बर्फ के ढेर में गिरी और, अटपटेपन से ऊपर चढते हुए, नरम बर्फ पर कूद गई. मज़ेदार बात है, उसने बिल्ली को क्यों फेंक दिया? शायद, उसने मेज़ से कोई चीज़ खींच ली थी.

मगर...अब न तो वह घर है, न ही लड़का, ना बिल्ली – मैदान में एक कारखाना खडा है. मैदान सफ़ेद है, पाईप लाल. धुँआ काला और प्रकाश- पीला. दिलचस्प बात है, इस कारखाने में करते क्या हैं? ये है बूथ, और है भेड़ की खाल के ओवरकोट में लिपटा हुआ संतरी. भेड़ की खाल वाले ओवरकोट में संतरी है भारी-भरकम, और उसकी राइफल घास के तिनके जैसी पतली दिखाई दे रही है. मगर घुसने की कोशिश तो करके देखो!

फिर आया जंगल, नाचता हुआ. पेड़, जो बहुत नज़दीक थे, जल्दी-जल्दी उछल रहे थे, मगर दूर वाले पेड़ धीरे-धीरे हिल रहे थे, जैसे बर्फ की प्यारी नदी ने चुपचाप उन्हें घेर लिया हो.

गेक ने चुक को आवाज़ दी, जो काफी सारे गिफ़्ट्स लेकर कुपे में लौट आया था, और वे दोनों मिलकर बाहर का नज़ारा देखने लगे.

रास्ते में बड़े स्टेशन्स भी मिलते, जो प्रकाशमान थे, जिन पर एक साथ करीब सौ इंजिन फुसफुसा रहे थे और फुफ़कार रहे थे; बेहद छोटे स्टेशन्स भी मिलते – मगर, उस छोटे से स्टाल से बड़े नहीं थे, जो उनके मॉस्को वाले घर के पास, नुक्कड़ पर, छोटा-मोटा सामान बेचता था.    

कच्ची धातुओं, कोयले और मोटे-मोटे लकड़ी के लट्ठों से लदी रेलगाड़ियाँ भी मिलतीं.

उन्होंने गायों और बैलों से भरी एक रेलगाड़ी को पकड़ा. इस गाडी का इंजिन तो बेहद मामूली था और उसकी सीटी बहुत पतली थी, चीख जैसी, और तभी एक बैल ज़ोर से चिल्लाया: मू-ऊ! इंजिन ड्राइवर ने भी पीछे मुड़कर देखा, शायद, उसने सोचा, कि कोई बड़ा इंजिन उसके पास आ रहा है.

और एक जंक्शन पर तो वे शक्तिशाली, लोहे की बख्तरबंद ट्रेन के समीप रुके. तिरपालों में लिपटे हथियार खतरनाक तरीके से टॉवर्स से झांक रहे थे. रेड आर्मी के सैनिक खुशी से झूम रहे थे, हँस रहे थे और, तालियाँ बजाते हुए अपने हाथ गरम कर रहे थे.    

मगर चमड़े की जैकेट पहने एक आदमी बख्तरबंद ट्रेन के पास चुपचाप सोच में डूबा खडा था. चुक और गेक ने फैसला कर लिया कि ये, बेशक, कमांडर है, जो वराशिलोव से हुक्म का इंतज़ार कर रहा है, कि क्या दुश्मन के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया जाए.

हाँ, उन्होंने रास्ते में काफी कुछ देखा. अफ़सोस इस बात का था, कि बाहर बर्फ का तूफ़ान गरज रहा था और कम्पार्टमेंट की खिड़कियाँ अक्सर बर्फ से ढँक जाती थीं.

और आखिरकार, सुबह, ट्रेन एक छोटे से स्टेशन पर पहुँची. 

मम्मा ने चुक और गेक को नीचे उतारकर फ़ौजी से अपना सामान लिया ही था कि ट्रेन चल पडी.

सूटकेस बर्फ पर पड़े थे. लकड़ी का प्लेटफ़ॉर्म जल्दी ही खाली हो गया, मगर पापा तो उन्हें लेने आये ही नहीं.

तब मम्मा पापा पर गुस्सा करने लगी और बच्चों को सामान के पास छोड़कर गाड़ीवानों के पास ये पूछने के लिए गई कि पापा ने उनके लिए कौन सी स्लेज भेजी है, क्योंकि उस जगह तक, जहाँ वो रहते थे, तायगा में और सौ किलोमीटर जाना था.

मम्मा को बड़ी देर लग रही थी, और यहाँ, कुछ ही दूरी पर एक खतरनाक बकरा प्रकट हुआ. पहले तो उसने बर्फ से ढंके लट्ठे की छाल खाई, मगर बाद में बड़े घिनौने तरीके से मिमियाया और एकटक चुक और गेक की ओर देखने लगा.

तब चुक और गेक फ़ौरन सूटकेसों के पीछे दुबक गए, क्योंकि, क्या पता इस इलाके में बकरों को क्या चाहिए.

मगर तभी मम्मा आ गई. वह बहुत दु:खी नज़र आ रही थी और उसने बताया कि ,शायद, पापा को उनके निकलने के बारे में टेलीग्राम नहीं मिला और इसीलिये उन्होंने स्टेशन पर बच्चों के लिए घोड़े नहीं भेजे.

तब उन्होंने एक गाडीवान को बुलाया. गाडीवान ने बकरे को पीठ पर लम्बा चाबुक मारा, सामान लिया और उन्हें स्टेशन के बुफे में ले गया.

बुफे छोटा-सा था. काउंटर के पीछे, मोटा, चुक जितना ऊंचा समोवार भाप छोड़ रहा था. वह थरथरा रहा था, सीटी बजा रहा था, और उसकी घनी भाप, बादल के समान लकड़ी के तख्तों की सीलिंग तक जा रही थी, जिसके नीचे गरमाने के लिए आई गौरैया चहचहा रही थीं.

जब तक चुक और गेक चाय पी रहे थे, मम्मा गाडीवान से भाव तय कर रही थी : जंगल में उनकी जगह तक ले जाने का वह कितना लेगा. गाडीवान बहुत मांग रहा था – पूरे सौ रुबल्स. वैसे भी क्या कह सकते हैं: रास्ता तो वाकई में छोटा नहीं था. आखिरकार वे सहमत हो गए, और गाडीवान घर भागा – ब्रेड, घास और भेड़ की खाल के कोट लाने.

“पापा को मालूम ही नहीं है कि हम आ चुके हैं,” मम्मा ने कहा. “वो तो चौंक जायेंगे और खुश भी हो जायेंगे.”

“और मैं भी,” गेक सहमत हो गया, “हम चुपके से जायेंगे, और अगर पापा घर से बाहर गए हैं, तो हम सूटकेसें छुपा देंगे और खुद पलंग के नीचे छुप जायेंगे. अब ये पापा आये. बैठे. सोचने लगे. और हम खामोश, खामोश, खामोश हैं, और अचानक चिल्लायेंगे!”

“मैं पलंग के नीचे नहीं जाऊंगी,” मम्मा ने इनकार कर दिया, “और आवाज़ भी नहीं निकालूंगी. खुद ही लेटो, और चिल्लाओ...चुक, तू ये जेब में शक्कर क्यों छुपा रहा है? वैसे भी तेरी जेबें पूरी भरी हैं, जैसे कचरे का डिब्बा...”

“मैं घोड़े चराऊंगा,” चुक ने शान्ति से कहा. “गेक, ये ले, तू भी चीज़-केक का टुकड़ा ले ले, वरना तो तेरे पास कभी भी कुछ भी नहीं होता. सिर्फ मुझसे छीनना आता है.”

जल्दी ही गाडीवान आ गया. चौड़ी स्लेज में सामान रखा, घास फूस बिछा दी; कंबलों में, भेड़ की खाल के कोट में दुबक गए.

 अलबिदा, बड़े शहरों, फैक्टरियों, स्टेशन्स, गाँव, देहात! अब आगे है सिर्फ जंगल, पहाड़ और फिर घना, अन्धेरा जंगल.


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