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वड़वानल - 5

वड़वानल - 5

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''Come on you punks, out with mugs'' पाव के टुकड़े बाँटने आया गोरा अधिकारी डिब्बे के सामने खड़ा होकर चिल्ला रहा था।

रातभर के भूखे सैनिक अपने–अपने मग्ज़ लेकर डिब्बे से बाहर आए ''you greedy fools, get back, Come in Que ! Every body will get his ration .'' अनुशासनहीन सैनिकों पर वह अधिकारी चीख रहा था। गुरु और दत्त यह सब देख रहे थे। ‘‘पेट की आग इन्सान को कितना लाचार बना देती है, देखा ?’’ गुरु दत्त से कह रहा था।

‘‘ये केवल भूख नहीं है, डेढ़ सौ सालों की गुलामी से खून में घुल गई लाचारी है। इन सैनिकों को अपनी गुलामी का एहसास दिलाना पड़ेगा। तभी ये विद्रोह पर उतारू हो जाएँगे। ’’ दत्त फिर अपने आप से पुटपुटाया।

‘‘सफर के इन चार दिनों में गोरे सैनिक अपने डिब्बों से बाहर आए ही नहीं। उनका सारा इन्तजाम कम्पार्टमेंट्स में ही किया गया है। पिछले स्टेशन पर ये सारे गोरे लोग भोजन के लिए बाहर गए थे। कोचीन से चलते समय उन्हें भत्ता और आठ दिन की तनख्वाह दी गई है। हमें क्या दिया गया ? और क्या दिया जा रहा है ? बासी ब्रेड के टुकड़े और बेस्वाद चाय का पानी। ’’

मिलिट्री स्पेशल कलकत्ता पहुँची, तब रात के आठ बज चुके थे। युद्ध कालीन ब्लैक आउट के कारण कृष्णपक्ष की काली रातें और अधिक गहरी हो गई थीं। पूरा शहर अँधेरे में डूबा था। रास्ते सुनसान थे। सुनसान हावड़ा ब्रिज किसी पुराण पुरुष के समान उस अँधेरे में खड़ा था। अँधेरे को चीरती हुई बीच में ही कोई गाड़ी गुजर जाती। अक्सर आर्मी की गाड़ी ही होती। गुरु ने हावड़ा स्टेशन पर कदम रखा और उसका हृदय पुलकित हो उठा। क्रान्तिकारियों की जन्मभूमि कलकत्ता...सुभाष चन्द्र, रवीन्द्रनाथ, सुरेन्द्रनाथ का कलकत्ता। ऐसा लगा कि यहाँ की धूल माथे से लगा ले; परन्तु साहस नहीं हुआ। अगर कोई देख ले तो ? डर तो लग रहा था, पर सुभाष बाबू के प्रति हृदय में जो आदर की भावना थी वह चैन नहीं लेने दे रही थी। जूतों के फीते बाँधने के लिए वह नीचे झुका और रास्ते की धूल माथे से लगा ली।

‘‘मैं सैनिक होते हुए भी पहले हिन्दुस्तानी हूँ। गुलामी की जंजीरों में जकड़े इस देश का नागरिक हूँ। एक नागरिक होने के कारण इस देश की आजादी के लिए लड़ने का मुझे अधिकार है। ’’

गुरु के मन में फिर वही प्रश्न उठा, जो अक्सर उसे सताता था, ‘‘किसके प्रति निष्ठा ज्यादा महत्त्वपूर्ण है ?’’

उसका दिल हुआ कि जोर से चिल्लाए, ‘‘वन्दे मातरम् ! भारत माता की जय!’’ उसने मन ही मन नारा लगाया और...कानों को बहरा कर देने वाली बन्दूक की आवाज का आभास...

''Hey, You change your step,'' प्लेटून कमाण्डर चिल्लाया। गुरु ने अपना कदम सुधारा, पर विचार... उसे याद आया...

गाड़ी किसी स्टेशन पर खड़ी थी। अलसाया हुआ गुरु पैर सीधे करने के लिए नीचे उतरा। पानी पीने के लिए नल के पास पहुँचा। वहाँ खड़े कुछ नौजवानों में से एक गुरु की ओर देखते हुए बोला, ‘‘हम लोग सिर पे कफन बाँधकर गोरों की धज्जियाँ उड़ाने चले हैं। नेताजी और उनकी सेना फिरंगियों का बाहरी मुल्कों में कड़ा मुकाबला कर रही है। लोहिया, आसफ अली जैसे नेता छुप–छुपकर अंग्रेज़ों से लड़ रहे हैं और इन्हें देखो, इसी मिट्टी के कपूत अंग्रेज़ों से हाथ मिलाकर उनका साथ दे रहे हैं। गद्दार साले!’’ उनकी नजरों से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं हुई गुरु की। वह चीख–चीखकर कहना चाह रहा था, ‘‘मैं गद्दार नहीं हूँ।

मैं भी एक हिन्दुस्तानी हूँ। इस मिट्टी से प्यार है मुझे। मगर मैं शपथ से बँधा हुआ हूँ। मुझे उनकी ओर से लड़ना ही होगा। ’’

इंजन की सीटी सुनाई दी, कानों को बहरा कर देने वाली और वह होश में आया।

''Come on you, keep dressing.'' दौड़ते हुए प्लेटून कमाण्डर ने उसकी पीठ पर धौल जमाकर उसे जगाया।  

गुरु के साथ आए नौसैनिकों को कलकत्ता के नौदल बेस - हुबली पर रखा गया। कराची से मद्रास तक के भिन्न–भिन्न नौसेना के जहाजों से वहाँ की बेस के सैनिक रोज आ रहे थे।

‘‘कहाँ ले जा रहे हैं हमें ? कौन–सा काम दिया जाएगा हमें ?’’ क्लाईव से आया हुआ मिश्रा गुरु से पूछ रहा था, ‘‘कसाईख़ाने में जैसे मवेशियों को ठूँसा जाता है, वैसे ही हमें ठूँसा गया है। ’’

‘‘अरे मवेशियों को तो हलाल करने से पहले बढ़िया खिला–पिलाकर पाला जाता है। मगर यहाँ हमें न ढंग का खाना, न ढंग की जगह मिली है रहने के लिए। मगर काम तो भयानक है। सुबह आठ बजे से ठीक शाम के छह बजे तक। बंदरगाह के मुहाने पर लगाई जाने वाली लोहे के तारों की जालियाँ बनाना, लोहे की रस्सियाँ बुनना, विविध साधन–सामग्री की हिफ़ाज़त करना। काम तो खत्म ही नहीं होता। ’’ गुरु गुस्से से मिश्रा को सुना रहा था।

उस दिन ड्राय डॉक में खड़े दो छोटे माइन स्वीपर्स का पुराना रंग खरोच कर उन पर नया रंग लगाने का काम चल रहा था। हुबली आए हुए सभी नौसैनिक सुबह आठ बजे से खट रहे थे। रंग खुरचते हुए हथौड़े और लोहे को घिसने की आवाज से कान बहरे हो गए थे। दोपहर के बारह बज चुके थे, मगर न तो खाने का ट्रक अभी तक आया था, न ही दस बजे वाली ‘स्टैण्ड ईजी’- विश्राम के समय की चाय दी गई थी।

सामने से आ रहे सब लेफ्टिनेंट चटर्जी को देखकर गुरु और दत्त के साथ काम करने वाला दास गुरु से बोला, ‘‘वो देखो, मोहनीश चटर्जी आ रहा है। मेरे ही गाँव का है। उससे जाकर कहते हैं कि सुबह से कुछ भी नहीं मिला है। खूब थक गए हैं, अब थोड़ा विश्राम दो। ’’

‘‘कोई फायदा नहीं, बिलकुल तेरे गाँव का हो, फिर भी नही’’, गुरु ने कहा।

‘‘क्यों ?’’ दास।

‘‘क्योंकि वह अफ’सर है और तुम दास हो!’’ दत्त।

‘‘मुझे ऐसा नहीं लगता!’’ दास बोला और उसने आगे बढ़कर चटर्जी से शिकायत की।

उसकी शिकायत सुनकर असल में उसे गुस्सा आ गया था। एक काला सिपाही, गाँववाला हुआ तो क्या, शिकायत करे यही उसे अच्छा नहीं लगा था।

गुस्से को छिपाते हुए उसने समझाया, ‘‘अरे, ये लड़ाई चल रही है। इस गड़बड़ी में थोड़ी देर–सवेर हो ही जाती है।’’

‘‘मगर गोरे सैनिकों को तो सब कुछ–––’’

‘‘यहाँ साम्राज्य खत्म होने की नौबत आई है और तुम्हें खाना–पीना सूझ रहा है, हाँ ? युद्ध काल में शिकायत का मतलब है गद्दारी। दुबारा ऐसी शिकायत लेकर आए तो याद रखना ! विद्रोह के आरोप में कैद करके एक–एक की गाँ…पर लात मारेंगे। ’’

अपना–सा मुँह लेकर दास वापस आया।

‘‘अरे, सारे अधिकारी ऐसे ही हैं, गोरों के तलवे चाटने वाले!’’ दत्त ने समझाया। गुरु को प्रशिक्षण के दौरान ‘तलवार’ पर हुई घटना का स्मरण हो आया...।

चावल में इतने कंकड़ थे कि दाँत गिरने को हो रहे थे। और उसमें से कीड़े निकालते–निकालते तो घिन आ रही थी। दाल तो ऐसी कि बस ! उसमें दाल का दाना नहीं था, न ही कोई मसाले, मिर्च इतनी कि बस लाल–लाल नजर आ रहा था। पानी पी–पीकर वे ग्रास निगल रहे थे। उस दिन का ‘ऑफ़िसर ऑफ़ दी डे’ सब ले. वीरेन्द्र सिंह राउण्ड पर निकला था, उसे देखकर गुरु की बगल में बैठा यादव गुरु से बोला, ‘‘क्या खाना है ! ऐसा लग रहा है कि थाली उठाकर राउण्ड पर निकले वीरेन्द्र सिंह के सिर पर दे मारूँ। ’’

सभी ऐसा ही सोच रहे थे, मगर कह कोई नहीं रहा था। कमज़ोर और डरपोक मन में विद्रोह के विचार यदि आते भी हैं तो वे बाहर प्रकट नहीं होते। वहीं पर बुझ जाते हैं।

‘‘पाँच साल की नौकरी का करारनामा किया है ना ? जो मिलता है वो खा, दिन–रात खटता रह और पाँच साल गुजार!’’ बगल में बैठे दूसरे सैनिक ने सलाह दी।

‘‘नहीं रे, ये सुनेगा!’’ वीरेन्द्र सिंह की ओर देखते हुए यादव कह रहा था। वह विश्वासपूर्वक कह रहा था। ‘‘ये हमारा राजा साब है। रियाया के दुख–दर्द वह देखेगा ही। ’’

साथियों के विरोध की परवाह न करते हुए यादव वीरेन्द्र सिंह के पास शिकायत करने गया। थाली उसके सामने पकड़कर यादव शिकायत कर रहा था। वीरेन्द्र के चेहरे के भाव बदलते जा रहे थे। वह गरजा, ‘‘साले, सुअर की औलाद ! कल तक हमारे जूते उठाते फिरते थे और आज नेवी में भरती हो गए हो तो खुद को लाट साब समझने लगे ! जो भी यहाँ मिल रहा है, चुपचाप खाते रहो, वरना चू... फाड़ के रख दूँगा!’’

वीरेन्द्र के खून से अंग्रेजों का ईमान बोल रहा था। पूरी मेस में सन्नाटा छा गया। हाथ का ग्रास हाथ में और मुँह का मुँह में रुक गया। यादव रोने–रोने को हो गया।

‘‘क्यों आए हम यहाँ ? क्या घर में दो जून का खाना नहीं मिलता था इसलिए ?’’

वास्तविकता तो यह थी कि वह और उसके जैसे अनेक युवक सेना में भरती हुए थे अंग्रेज़ी सरकार के आह्वान के जवाब में ! सरकार का यह फर्ज़ था कि उन्हें अच्छा खाना दे, सम्मान का जीवन दे। क्योंकि वे लड़ रहे थे अंग्रेज़ों के साम्राज्य को बचाने के लिए।

गुरु का क्रोध बर्दाश्त से बाहर हो गया। खून मानो जल रहा था। तब भी और अब भी ऐसा लग रहा था कि चटर्जी का गला पकड़ ले। मगर अपनी ताकत पर भरोसा नहीं था। ऐसा लग रहा था, मानो नपुंसक हो गया हो।

‘‘हम अंग्रेज़ों की ओर से क्यों लड़ें ? स्वतन्त्रता संग्राम से गद्दारी क्यों करें ?’’ दत्त पूछ रहा था।

‘‘नेशनल कांग्रेस के नेता सैनिकों की भर्ती का विरोध क्यों नहीं करते ? हिटलर का कारण क्यों सामने रखते हैं ? सैनिक देश की आजादी के लिए लड़ सकते हैं; फिर नेता लोग हमें अपने साथ क्यों नहीं लेते ? वासुदेव बलवन्त फड़के, मंगल पाण्डे सैनिक ही तो थे ना ? बलिदान के लिए सैनिक तैयार हैं, फिर भी 1942 के आन्दोलन में उन्होंने हमें क्यों साथ नहीं लिया ? अगर वैसा हो जाता तो आज शायद हम अंग्रेज़ों की ओर से युद्ध न कर रहे होते। ’’ गुरु ने अपने दिल की बात कही।


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