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विनाशकारी अण्डे - 1

विनाशकारी अण्डे - 1

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प्रोफेसर पेर्सिकोव का जीवन सार


16 अप्रैल 1928 की शाम को IV स्टेट युनिवर्सिटी में प्राणि-शास्त्र के प्रोफेसर और मॉस्को की प्राणि-संस्था के डाइरेक्टर पेर्सिकोव गेर्त्सेन रोड पर स्थित प्राणि-संस्था के अपने

कक्ष में प्रविष्ठ हुए। प्रोफेसर ने ऊपर वाला धुँधला गोल बल्ब जलाया और देखने लगे।

भयानक हादसे का आरम्भ इसी मनहूस शाम में छुपा हुआ समझा जा सकता है; उसी तरह, इस हादसे का मूल कारण माना जा सकता है प्रोफेसर व्लादीमिर इपात्येविच पेर्सिकोव को।

उनकी उम्र ठीक 58 साल थी। सिर बड़ा लाजवाब, प्रेरणादायक, गंजा, किनारों से झाँकते पीले-पीले बालों के गुच्छों वाला। चेहरा सफ़ाचट, निचला होंठ आगे को निकला हुआ। इसके कारण पेर्सिकोव का चेहरा थोड़ा सनकी दिखाई देता था। लाल नाक पर पुरानी फ़ैशन का चांदी की फ्रेम वाला छोटा-सा चश्मा, आँखें चमकीली, छोटी-छोटी , ऊँचा कद, कन्धे झुके हुए। अपनी पतली, तीखी, चीं-चीं करती आवाज़ में बोलते और उनकी अन्य अजीब आदतों में से एक ये थी : जब अधिकारपूर्वक और विश्वासपूर्वक कुछ कहते तो सीधे हाथ की तर्जनी का एक हुक बना लेते और आँखें सिकोड़ लेते। और चूँकि वह हमेशा विश्वासपूर्वक ही बात किया करते, क्योंकि अपने क्षेत्र में उन्होंने अभूतपूर्व महारथ प्राप्त कर ली थी, तो ये हुक प्रोफेसर पेर्सिकोव से वार्तालाप करने वालों की आँखों के सामने अक्सर प्रकट होता। और अपने क्षेत्र, याने प्राणि- शास्त्र, एम्ब्रियोलॉजी, एनाटोमी, बॉटनी और जॉग्रफ़ी के अलावा प्रोफ़ेसर कुछ और बात नहीं करते थे।

अख़बार प्रोफ़ेसर कभी नहीं पढ़ते थे, थियेटर कभी नहीं जाते थे, और प्रोफ़ेसर की पत्नी सन् 1913 में ज़ीमिन ऑपेरा के गायक के साथ प्रोफ़ेसर के नाम यह चिट्ठी छोड़कर भाग गई:

“तुम्हारे मेंढक मेरे दिल में बेतहाशा नफ़रत भर देते हैं। उनके कारण मैं सारी ज़िन्दगी दुःखी ही रहूँगी।”

प्रोफ़ेसर ने दूसरी शादी नहीं की और उनके कोई बच्चे भी नहीं थे। बड़े गुस्सैल स्वभाव के थे, मगर जल्दी ही भूल भी जाते थे, क्लाउडबेरीज़ के साथ चाय पीना पसन्द करते थे, प्रेचिस्तेन्को में रहते थे, पाँच कमरों वाले फ्लैट में, जिनमें से एक में रहती थी सूखी-सपाट बुढ़िया केयरटेकर मारिया स्तेपानोव्ना, जो प्रोफ़ेसर की बड़े ध्यान से देखभाल करती थी।

सन् 1919 में प्रोफ़ेसर के पाँच कमरों में से तीन छीन लिए गए। तब उन्होंने मारिया स्तेपानोव्ना से साफ़-साफ़ कह दिया: ‘अगर उन्होंने ये बेहूदगी बन्द नहीं की, तो मैं, मारिया स्तेपानोव्ना, विदेश चला जाऊँगा’।

इसमें कोई शक नहीं है कि अगर प्रोफ़ेसर ने अपने इस प्लान पर अमल किया होता तो उनके लिए दुनिया के किसी भी विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में पैर जमा लेना बड़ा आसान होता, क्योंकि वह पहले दर्जे के वैज्ञानिक थे, और उस क्षेत्र में जिसका संबंध उभयचर प्राणियों या चिकने रेंगने वाले प्राणियों से था, उनके जैसा कोई न था सिवाय कैम्ब्रिज के प्रोफ़ेसर विलियम वेक्केल और रोम के जियाकोमो बार्तालोमियो बेक्कारी के। प्रोफ़ेसर रूसी के अलावा चार अन्य भाषाओं में पढ़ सकते थे; और फ्रांसीसी तथा जर्मन में रूसी जैसी सहजता से बोल सकते थे। अपना विदेश वाला प्लान प्रोफ़ेसर पूरा नहीं कर पाए और सन् 20 सन् 19 से भी बुरा निकला। एक के बाद एक घटनाएँ होती रहीं। बल्शाया निकीत्स्काया स्ट्रीट का नाम बदल कर गेर्त्सेन स्ट्रीट कर दिया गया। इसके पश्चात् गेर्त्सेन और मोखवाया स्ट्रीट्स के नुक्कड़ पर स्थित घर की दीवार में लगी घड़ी 11।15 बजे रुक गई, और अंत में प्राणि-संस्था के विशेष पिंजरों में, इस महान वर्ष की उथल-पुथल को बरदाश्त न कर पाने के कारण टर्राने वाली किस्म के 8 शानदार नमूने और 15 साधारण टोड्स ( विशेष प्रकार के मेंढक जैसे जंतु) मर गए और अंत में टोड्स की अतिविशिष्ठ किस्म सूरिनाम का इकलौता नमूना भी भगवान को प्यारा हो गया।              

टोड्स के फ़ौरन बाद, जिन्होंने चिकने, रेंगने वाले प्राणियों की उस पहली पंक्ति को सूना कर दिया था जिसे न्यायोचित ढंग से बिना पूँछ के रेंगने वाले प्राणी कहा जाता है, संस्था का चौकीदार बूढ़ा व्लास, जिसकी जगह कोई और नहीं ले सकता था, और जो रेंगने वाले प्राणियों की श्रेणी में नहीं आता था, दूसरी दुनिया में रहने चला गया। उसकी मृत्यु का कारण भी वही था जिसकी वजह से बेचारे रेंगने वाले प्राणी चल बसे थे, और प्रोफ़ेसर पेर्सिकोव ने जिसका फ़ौरन निदान कर दिया था:

 “खाने का अभाव!”

 वैज्ञानिक बिल्कुल सही था। व्लास को आटा खिलाना चाहिए था, और टोड्स को आटे में पाए जाने वाले कीड़े, मगर चूँकि पहली चीज़ ग़ायब हो गई थी, इसलिए दूसरी का भी नामोनिशान नहीं बचा। टर्राने वाली किस्म के बचे हुए 20 नमूनों को पेर्सिकोव ने तिलचट्टे खिलाने की कोशिश की, मगर वार-टाइम-कम्युनिज़्म (युद्ध कालीन कम्युनिज़्म) के प्रति अपनी अप्रसन्नता दर्शाते हुए तिलचट्टे भी न जाने कहाँ लुप्त हो गए। इस तरह बचे खुचे नमूनों को भी संस्था के आंगन में खुदे गड्ढों में दफ़न कर देना पड़ा।

इन मौतों का, और विशेषकर सूरिनाम टोड की मौत का पेर्सिकोव पर जो असर हुआ उसका वर्णन करना मुश्किल है। इन मौतों के लिए वह न जाने क्यों तत्कालीन शिक्षा- विभाग के जन-कमिश्नर को दोषी ठहराता था।

टोपी और गलोश पहने, ठण्ड से जम चुकी संस्था के कोरीडोर में खड़े होकर पेर्सिकोव अपने असिस्टेंट, नुकीली सफ़ेद दाढ़ी वाले सलीकापसन्द जेंटलमेन से कह रहा था, “इसके लिए तो उसे, प्योत्र स्तेपानोविच, मार डालना भी कम है! कर क्या रहे हैं ये लोग ? संस्था को मारे डाल रहे हैं! हाँ ? बेमिसाल टोड, पीपा अमेरिकाना का लाजवाब नमूना, 13 सेंटीमीटर लम्बा।”

आगे तो और भी बदतर दिन आ गए। व्लास की मृत्यु के कारण संस्था की खिड़कियाँ आर-पार पूरी तरह से जम गईं, जिससे काँचों की भीतरी सतह पर फूलों जैसी बर्फ बैठ गई। ख़रगोश, लोमड़ियाँ, भेड़िए, मछलियाँ और सारे घास के साँप मर गए। पेर्सिकोव पूरे-पूरे दिन ख़ामोश रहता, फिर उसे निमोनिया हो गया, मगर वह मरा नहीं। जब ठीक हो गया तो हफ़्ते में दो दिन संस्था में आता और गोल हॉल में, जहाँ तापमान हमेशा -5 डिग्री रहता, चाहे बाहर का तापमान कितना ही क्यों न हो, गलोश पहने, लम्बे कानों वाली टोपी लगाए और मफ़लर बाँधे, मुँह से सफ़ेद भाप छोड़ते हुए, 8 विद्यार्थियों को “ ऊष्ण कटिबन्ध के रेंगने वाले जंतु ” विषय पर लेक्चर देता। बाकी बचे समय में पेर्सिकोव प्रेचिस्तेन्को में फर्श तक किताबों से अटे पड़े कमरे में रज़ाई में दुबक कर दीवान पर पड़ा रहता, खाँसता रहता और छोटी सी भट्टी के जबड़े की ओर देखता रहता जिसे मारिया स्तेपानोव्ना ने सुनहरी कुर्सियाँ तोड़-तोड़कर गर्माया था, सूरिनाम टोड को याद करता रहता।

मगर दुनिया में हर चीज़ का अंत होता ही है। सन् 20 और 21 गुज़र गए और सन् 22 से गाड़ी वापस पटरी पर चल पड़ी। सबसे पहले : स्वर्गीय व्लास की जगह पर आया प्राणि-संस्था का नौजवान चौकीदार पन्क्रात, जिससे काफ़ी उम्मीदें थीं, संस्था को थोड़ा-थोड़ा गर्माया जाने लगा। और गर्मियों में पेर्सिकोव ने क्ल्याज़्मा में पान्क्रात की सहायता से 14 साधारण टोड्स पकड़े। प्राणियों के पिंजरों में फिर से ज़िन्दगी सुगबुगाने लगी। सन् 23 में पेर्सिकोव हफ़्ते में 8 बार लेक्चर्स देते थे – 3 बार संस्था में और 5 बार विश्वविद्यालय में; सन् 24 में हफ़्ते में 13 बार, और इसके अलावा राबफाक (वर्कर्स फैकल्टी ) में, और सन् 25 के बसंत में, वह इस बात के लिए मशहूर हो गए कि उन्होंने परीक्षाओं में 76 विद्यार्थियों की चीर-फ़ाड़ कर डाली, और सभी की चिकने रेंगने वाले प्राणियों के कारण।

 “क्या, आप इतना भी नहीं जानते कि चिकने रेंगने वाले प्राणियों और अन्य साँपों में क्या फर्क होता है ?” पेर्सिकोव पूछता। “ बड़ी अजीब बात है, नौजवान। चिकने रेंगने वाले प्राणियों में पेल्विक-किडनीज़ नहीं होती। वे अनुपस्थित होती हैं। च् च् च्। शरम आनी चाहिए। आप, शायद, मार्क्सिस्ट हैं ?”

 “मार्क्सिस्ट,” बुझते हुए चीरा-फ़ाड़ा गया परीक्षार्थी जवाब देता।        

 “ठीक है, प्लीज़, पतझड़ में,” बड़े सौजन्य से पेर्सिकोव कहता और जोश में आकर पन्क्रात से चिल्लाकर कहता, “अगले को भेजो!”

 जैसे लम्बे सूखे के बाद पहली ज़ोरदार बारिश में उभयचर प्राणी जी उठते हैं उसी तरह प्रोफ़ेसर पेर्सिकोव भी सन् 1926 में मानो पुनर्जीवित हो उठा जब रूसो-अमेरिकन जॉइन्ट कम्पनी ने गज़ेत्नी चौराहे और त्वेर्स्काया से आरम्भ करके, मॉस्को के सेंटर में 15-15 मंज़िलों वाली पन्द्रह बिल्डिंगें बनाईं, और सीमावर्ती क्षेत्रों में आठ-आठ फ्लैट्स वाली 300 वर्कर्स-कॉटेजेस बनाईं और रिहायश की उस भयानक और हास्यास्पद समस्या को समाप्त कर दिया, जिसने मॉस्कोवासियों को सन् 1919-1925 में इतना परेशान कर दिया था।

आम तौर से ये पेर्सिकोव की ज़िन्दगी की बेहतरीन गर्मियाँ थीं, और कभी-कभार वह हल्की और ख़ुशनुमा हँसी के साथ अपने हाथ मलता, ये याद करके कि वह कैसे मारिया स्तेपानोव्ना के साथ दो कमरों में सिकुड़ गया था। अब प्रोफ़ेसर को पाँचों कमरे वापस मिल गए थे, अब वह फैल गया था - अपनी 2 1/2 हज़ार किताबें, भूसा भरे जानवर, डाइग्राम्स, अपने प्लान्स सजा कर रख दिए, अध्ययन-कक्ष में मेज़ पर हरा लैम्प जला लिया।

संस्था को पहचानना भी मुश्किल हो रहा था : उसे क्रीम कलर से रंग दिया गया, ख़ास तरह के नलों से रेंगने वाले प्राणियों के कमरे में पानी का इंतज़ाम किया गया, सभी काँचों को आईनों से बदल दिया गया, पाँच नए माइक्रोस्कोप्स भेजे गए, लेक्चर के प्लान्स के लिए काँच की मेज़ें भेजी गईं, म्यूज़ियम में परावर्तित प्रकाश वाले 2000 लैम्पों के गोल बल्ब भेजे गए, रिफ्लेक्टर्स, शो-केसेस भेजे गए।

पेर्सिकोव जी उठा, और जैसे ही सन् 1926 में ब्रोश्यूर - “डिज़ाइनदार, या लहरियेदार प्राणियों के विस्तार के प्रश्न पर”। पृ।127। “ IV स्टेट युनिवर्सिटी के समाचार” - प्रकाशित हुआ, सारी दुनिया को अकस्मात् ही इस बारे में पता चला।

और सन् 1927 में, पतझड़ में उनका 350 पृष्ठों का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित हुआ, जिसे जापानी सहित छह भाषाओं में अनुवादित किया गया: “मेंढकों की एम्ब्रियोलॉजी के बारे में"। मूल्य 3 रूबल्स, गोसिज़्दात। और सन् 1928 की गर्मियों में हुई वह अविश्वसनीय, भयानक, दिल दहलाने वाली घटना।


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