विज्ञान
विज्ञान
विज्ञान वरदान है या अभिशाप, यह मेरी समझ में न आता है।
भौतिकवादी बना इंसान, इंसानियत को ही भूलता जाता है।।
आलसी बना इस हद तक कि, हाथ, पैर चलाना भूल गया।
पल भर में प्राप्त करना चाहता, मेहनत से नाता टूट गया।।
आओ बात करें वर्तमान युग की, जहाँ संस्कारों का कोई मूल्य नहीं।
मात-पिता की सेवा तो छोड़ो, गुरु का दर्जा का भी कोई अमूल्य नहीं ।।
गुरु-कुल की मर्यादा को क्या समझें, गृह-कुल बना पाठशाला है।
ऑनलाइन सब कुछ ग्रहण हैं करते, अब इसका ही बोलबाला है।।
समय सारणी सब भूल बैठे, कब खाना कब सोना है।
प्रतिरक्षा प्रणाली सब घटती जाती, जो वर्तमान का रोना है।।
मात- पिता जब कहते भोजन करने को, भूख न लगने का करते बहाना है।।
बटन दबाते ही ऑर्डर करते, पिज्जा, बर्गर को मंगाना है।।
बिखरते जाते हैं सब रिश्ते-नाते, सभ्यता कहीं न दिखती है।
दूर हो रहे अपने ही अपनों से, बड़े-बुजुर्गों की कहाँ चलती है।।
विशिष्ट ज्ञान "विज्ञान" है कहलाता, अध्यात्म ज्ञान की कोई खबर नहीं।
अवसाद ग्रस्त से घिरा मानव, फिर भी न चुनता कोई डगर सही।।
जितना चाहता इनसे बचना, फँसता उतना ही जाता है।
थोड़ा सा मंथन उस शक्ति का भी कर ले, जो सबका बना विधाता है।।
"आत्म- तत्व का ज्ञान निराला, सभी ज्ञान जहाँ फीके हैं पड़ते।।
"परा-ज्ञान" सभी ज्ञानों की जननी, जो आत्म-शान्ति सबको हैं देते।।