बसंत
बसंत
सोचते थे प्यार ना करेंगे कभी किसी से यार
वक्त का खेल देखो आंखें हो गयी हमारी चार
चाहत बन कर वह दिल पर छाने लगी यार
कब हो गयी जरूरत हमारी पता ना चला दिलदार
रुहानियत अब उसकी हो चली है, रहा ना प्यार
चाह कर भी दूर कर ना पाते हो गये बेकार
पते झड़ जाते बसंत में तभी तो नाम पतझड़ हैं
फिर से नये आते पर हम तो हर मौसम उसके रहे यार
भूलना चाहते हैं तो उतना वह याद आती है
हम होते हैं दूर तो रुह निकल कर भाग जाती है
इश्क़ की मीठी मीठी चाशनी बहुत सताती है यार।

