चाँद जैसी रोटी
चाँद जैसी रोटी
चाँद को, रात के अंधेरे में
घूरती मेरी आँखें।
पूछती हों, जैसे तूने
देखा है, रोटी को कभी।।
भूखे रहकर, ही सोचता
मेरी तरह और
खुद को खा,ना जाता तभी।।
जीवन है, रोटी का खेल
इसके हैं, कारनामे अनेक।
इज़्ज़त और इंसानियत इन
सबके ऊपर है, रोटी एक।।
सभी लगे हैं
पाने इसे भरपेट।
भले ही पड़ोसी भूखा रहे
खाकर रोटी को,आधा पेट।।
रोटी है अन्याय
अनाचार की जन्मदाता ।
छीनकर जिंदा रहने की सीख
देने वाली, यही ज्ञानदाता।।
रोटी ने ही,करायी है
मानवता का वर्गभेद।
अवरूद्ध किया, मार्ग समानता का
आदम के पेट का, किया भेद।।
रोटी खाकर इंसान
बन गया है नरभक्षी ।
कुत्ता खाकर इसे
स्वामी की कर, रहा भक्ति ।।
अजीब है चक्कर, नियति का
घूम रहे, सभी घेरे में ।
चाँद जैसी रोटी या
रोटी जैसा चाँद
सभी पड़े हैं, इसी फेरे में ।।