उड़ान
उड़ान
माँ मुझे भी पंख लगा दो,
मैं भर सकूँ उड़ान।
मजहब की सीमा से बाहर,
ढूँढ़ सकूँ इन्सान।
रब ने मानव जाति बनाई,
नाम उसे इंसान दिया।
आपस में हम साथ रहें,
बस मानवता पहचान दिया।
मजहब की गलियारों में हम,
भुला चुके अपनी पहचान।
माँ मुझे भी पंख लगा दो,
मैं भर सकूँ उड़ान।
लाचारी गलबाँहें भरती,
आँहें भी खामोश यहाँ।
अपने ही अपनों को लूटे,
रिश्तों की अब कद्र कहाँ ?
लोगों के परिचय करवाता,
पद, पैसा, परिधान।
माँ मुझे भी पंख लगा दो,
मैं भर सकूँ उड़ान।
जब अपराधों का मूल्यांकन,
हो रहे मजहबी चश्मों से।
इन्साफ कहाँ मिल पाएगा,
'कठुआ' जैसे बेशर्मों से।
इस घनघोर अँधेरी रातों का,
लाना मुझको है नव विहान।
माँ मुझे भी पंख लगा दो,
मैं भर सकूँ उड़ान।
कितना अच्छा होता, मजहब,
एक इंसानियत होती।
ना दंगे 'लव ज़िहाद' के होते,
ना 'घरवापसी' होती।
गुरू ग्रंथ, बाईबल संग पढ़ते,
गीता और कुरान।
माँ मुझे भी पंख लगा दो,
मैं भर सकूँ उड़ान।
मजबह की सीमा से बाहर,
ढूँढ़ सकूँ इंसान।।