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Sonias Diary

Drama Tragedy

5.0  

Sonias Diary

Drama Tragedy

आँखें खुली थीं

आँखें खुली थीं

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चले थे आज रावण देखने,

"माँ नए कपड़े दिलवायो ना,

पापा के कंधे पे बैठ कर जाएँगे,

आज जन्मदिन भी तो है पापा,

आते हुए केक भी लेके आएँगे।"


"माँ तुम भी चलो ना,

आज रावण बहुत बड़ा बनाया है,

घर के बगल में ही तो है,

पाँच हज़ार पटाखों से उसे सजाया है।"


चले भाई, माँ-बाप संग,

आज रावण देखने,

आठ वर्ष की उम्र में,

सपने अनगिनत आँखों में,

पहली बार मेला देखने की खुशी,

पहली बार रावण देखने की खुशी।


कंधे पर बैठ पापा के,

क्या खूब चहक रहा था,

भाई संग,

माँ संग वो चल पड़ा था।


बहुत बड़ा था,

रावण अस्सी फुट,

गर्दन ऊपर आँखें ऊंची,

बच्चा उत्सुक था,

बहुत हैरान था।


"रावन कितना बड़ा है ना पापा,

रावन कितना बड़ा है,

आगे चलो ना पापा मुझे देखना है,

आगे का नज़ारा मुझे देखना है।"


पापा के कंधों से निकल,

हाथों को चूम,

भाग निकला आगे,

पटरी पर।


पटरी से नज़ारा क्या खूब दिखता था,

आँखे अब भी ऊंची थीं,

गर्दन खिंची थी,

हाथ की अंगुली अब भी ऊपर थी।


पापा ने एक आवाज़ लगाई,

"बेटा आ जाओ..."

"पापा मत बुलाओ,

नज़ारा बहुत अच्छा है,

मुझे रावण देखना है।"


राम ने जैसे ही रावण को,

आग लगाई,

वहाँ जनता ने,

अफ़रा-तफरी थी मचाई !


छोटा-सा मैदान,

बड़ा-सा रावण,

पटाखों से गूँज उठा था आकाश !


पटरी के कोने में बैठा,

लल्ला निहार रहा था,

आँखें अब भी खुली थीं,

गर्दन अब भी खिंची थी।


पापा की आवाज़ सुनाई न दी,

ट्रेन की पटरी में ट्रेन आती,

दिखाई न दी...


काट-काट चली खूनी वो,

माँ समक्ष लल्ला उड़ा,

ओर फिर गिरा धरती पर।


धड़ था कहीं,

गर्दन थी कहीं,

आँखें अब भी खुली थीं।


मंज़र वो खूनी,

टुकड़े-टुकड़े था शरीर,

एक-एक अंग,

वो माँ की चुनरी...

भाई और बाप ढूँढ रहा...

पापा के कंधे पे चला वो लल्ला,

माँ की चुनरी में,

धीरे-धीरे था सिमट रहा...


दिल धधक रहा,

रूह कांप रही,

चीखों पुकार के पटाखों में,

वातावरण वो गूंज रहा।


चला घर लल्ला,

माँ के आंचल में लिपटे,

चला घर लल्ला !

आँखें अब भी खुली थीं,

आँखें अब भी ऊंची थीं।


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