गुलाबी रंग (बिछड़ाव)
गुलाबी रंग (बिछड़ाव)
जीवन का एक अनिवार्य अंग है बिछड़ाव।
जीवन एक प्रक्रिया ही तो है बिछड़ाव की।
एक नारी से बेहतर कौन जान सकता है बिछड़ाव का दर्द।
जहां जन्म लिया है उनके लिए थी वह पराया धन।
जिस घर में वह आई वहां के लिए वह सदा ही थी पराई जाई।
कौन है अपना सबके लिए ही तो थी वह पराई।
एक साधिका सी अनवरत करती रही सबकी भलाई।
जाने किस जन्म में किस से बिछड़ कर और किसको मिलने को थी वह आई।
बचपन जवानी और प्रौढ़ावस्था तीनों बीत गए,
पिता पति और बेटा क्रम से मिलते बिछड़ते रहे।
समय बदला, पुराने लोग बिछड़े और नए लोग मिलते रहे।
बिछड़ाव की हद तो देखो, केवल नाम ही नहीं, मां बाप भाई बहन भी तो दूसरे मिल गए
बेटी भी तो अपनी नहीं, उसके लिए भी तो क्रम वही चला।
जाई तो अपनी थी लेकिन उसको भी तो पराया करना पड़ा।
पूरा जीवन जिस भ्रम में बिताया उसने
जिस घर को अपनाया और अपना बनाया उसने।
जिस जीवन को बचपन से ढोकर इस अंत तक लाया उसने।
आज मृत्यु शैया पर भी पड़ा है लेकिन इंतजार करता है मायके की चुनरी की।
शायद मायका अपना था,
नहीं जीवन यहां कटा तो ससुराल ही अपना था।
उसने तो जीवन में सबके लिए ही सब कुछ करा था।
अब कौन अपना था और कौन पराया यह हिसाब बाकी लोगों को ही करने दो।
चैन की नींद तो अब मिली है उसे सोने दो।
परमात्मा ही उसका सहारा था और परमात्मा ही उसका अपना था
दुनियादारी दुनिया जाने उसे तो अब परमात्मा की गोद में ही सोना था।
ओठों पर अब भी मुस्कुराहट खिली थी उसके,
किसी से भी बिछड़ने का दर्द उसे होता ही कहा था
जीवन का अनिवार्य अंग है बिछड़ाव
अब सब से बिछड़ कर ही तो उसे अपने परमात्मा से मिलना था।
