मेरे मन
मेरे मन
जाला बुनते-बुनते
थक नहीं गया मन,
फँसने-फँसाने से
पक नहीं गया मन।
इस खंडहर से जीवन में
क्यों कर बाग बगीचे
नहीं लगा लेता मन।
क्यों कर दरवाजों को हाथों से
खुलने खुलाने नहीं देता मन।
क्यों कर लगा रहता है हर वक्त
चरखीदाँव लगाने में मन।
अपनों को बेगाना बना
दूरियाँ बढ़ाने में मन।
क्यों कर इतना तग़ाफ़ुल
कौन सा झक्कड़ लाएगा मन।
किस उहापोह में है
क्यों कर अन्यमनस्क बन रहा मन।
आ सूरज की किरणों से
जगाते हैं तुझे मन।
चल अब बूझी सोच पर
ताले लगाते हैं मन।
मनमंथन से अमृत कलश
छलकाते हैं मन।
आ गम को कम करते हैं मन
हर उलझन को सुलझाने का
दम भरते हैं मन।
एकता का गान गुनगुनाते हैं मन।।