बचपन
बचपन
जब मैं छोटी बच्ची थी
खुशियां बिल्कुल कच्ची थी
खिलौनों संग खिलखिलाती थी
जूठ फरेब न बुन पाती थी
न कोई समझ दुनिया की थी
कच्ची मिट्टी मेरी साथी थी
बारिश की बूंदें लुभाती थी
यारी दोस्तों में बसती थी
डाल डाल झूला झूलती थी
अपनी मनमानी चलती थी
झूठे आँसों अक्सर बहाती थी
बदले में प्यार अपार पाती थी
चंचलता तितलियों जैसी थी
फूलों जैसे सदा महकती थी
परिंदो संग जगती सोती थी
चांदनी की चादर ओढ़ती थी
बेफिक्र नींद रात को आती थी
ख्वाबों में भी दौड़ती भागती थी
वह वक़्त न जाने कब ठहर गया
बेफिक्र जीस्त जीने का पहर गया
अब लफ्ज़ सीने में उलझे उलझे हैं
सवालात भी कई अनसुलझे है
कोई लौटा दे वे पल बचपन के
पवित्र, पावन ,अल्हड़पन के
मासूम ज़िन्दगी एक बार फिर जियूं
खून के आँसू अब और न पियों.........