उपेक्षा
उपेक्षा
उपेक्षा दर्द देती है....
तिरस्कृत करती है....
सशंकित करती है....
प्रश्नचिन्ह आरोपित करती है
व्यक्तित्व पर.....
उपेक्षा को जीना, निसंदेह आसान नहीं है।
उपेक्षित मन की दशा ऐसी ही है कि,
नयनों में नीर भरे....
देहरी पर ठिठके रहते हैं पैर,
आमंत्रण की आस में।
उपेक्षा करती है व्यथित...
शिथिल करती है आत्म-सम्मान....
और छिनती है अधिकार।
कि
फिर भी.......
उपेक्षा दमन करती है दंभ का,
हरती है दोषों को,
और देती है नया नज़रिया जीवन का।