बातों का पुल
बातों का पुल
ठोड़ी को
हाथ पर टिकाए देखती रहती हूँ
बालकनी के उस पार उनको
खुद को भुलाए रखने में
यहां पर मैं
लिखते हुए उनपर
एक कविता।
दोनों को अक्सर
अपनी अपनी दुनिया से
कुछ पल एकांत के निकाल कर
कुछ सोचते देख कर
यूँ लगता है कि
कही-अनकही बातों का,
एक टूटा हुआ पुल
अब भी है,
दोनो के बीच।
समय की
गहराती धुंध तले
दोनो तरफ ही
संकोची मन चुपचाप,
अपने अकेलेपन में मुस्कराते
कभी आंखें भीगाते-पोछते
शायद ख्वाहिशो के जंगल से
छोटी बड़ी बातों की बेलें
बेमतलब से सपनो के फूल
और उम्मीदों के मजबूत
मगर लचीले तने
बटोरते जाते हैं।
यह सब देख
पूछना चाहती हूं
उन खामोश सी अनसुनी
कहानियों से
कि कभी यादों की बरसात में,
भीगता हुआ उनमे से
कोई क्या यह कह सकता है,
चलो मिलते है,
उसी पुल पर
कहीं।
मुझे अपनी ओर
ताकता देख
और फैल जाती है
होठों पे उतरी बेेबस मुस्कान ,
ठहर जाते है
धार से बहतेआंसू
हिलते है दोनो के
खाली हाथ,
टूट जाता है कुछ
यहां मुझमे।