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Manju Mahima

Fantasy

4.9  

Manju Mahima

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अकथ्य से कथ्य की ओर

अकथ्य से कथ्य की ओर

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तेज़ बरखा में भी मैं,

बिना भीगे खड़ी हूँ,

शुष्क मन ढूँढ रहा

शब्दों को.

भाव अनभीगे से,

ठगे से खड़े रह गए,

एक ही जगह.

सपनीला पखेरू,

फड़फड़ा कर,

उड़ गया सुदूर में.

प्यास अनबुझी-सी,

देख रही,टुकुर-टुकुर,

तरसीली नदी को,

जो आज तृप्त हो उठी,

आकाश के नेह से.

हरी हो गई पीत धरती,

नीलाकाश के सहवास से.

फिर मैं ही,

क्यों सिमटी बैठी रहूँ ?

अनिद्रित,चांदनी को तकती?

कोई रुकता नहीं मेरे लिए,

सभी भाग रहे हैं,

अपने गंतव्य को.

फिर मैं ही क्यों खड़ी रहूँ?

देखती रहूँ सब

निष्प्राय-सी,

कैद हो.

बुदबुदाती रहूँ,

अकथ्य के सघन वन में.

पानी की एक बूँद ,

जो आकर गिरती है,

धरा पर,

वह भी उछल कर,

बंट जाती है कई,

नन्ही बूंदों में,

अभिव्यक्त कर देती है,

अपने को.

फिर मुझे तो फूटना है

बनकर झरना,

झर-झर का गीत

प्रतिपल गुनगुनाना है.

लेकर चलना है,

दोनों किनारों को,

अपने साथ,

गन्दगी को बहाकर

ले जाना है.

क्यों रहूँ मैं भयाक्रांत,

मौन के घेरे में सिमटी?

पुरातन परिवेश व

मान्यताओं से लिपटी?

अब न मैं अपने

सपनों के

कल्पवृक्ष को

झुलसने दूँगी

स्वयं बन जाऊँगी बरखा

अपने पीत,

मुरझाए हृदय को

पुन: हरा कर दूँगी

अकथ्य से कथ्य की ओर

बहा दूँगी अपने को

शब्दों की नौका में

तैर कर,

लूंगी आनंद फिर से

भीगे-भीगे से भावों का

सुन पाउंगी फुसफुसाहट

सद्यःस्नात वृक्षों के

पल्लवों की

शहर के शोर में भी

समझ सकूंगी बूंदों की

बुद-बुदाहट को

जो मन की

निस्तब्धता के द्वार पर

दस्तक दे रही होगी

खोल दो अर्गला

तुम भी

आओ बहें

अकथ्य से कथ्य की ओर......




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