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Prakash Chavhan

Abstract

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Prakash Chavhan

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काय ते दिस पण

काय ते दिस पण

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काय ते दिस पण 

मन खेळलं खऱ्यांनं

निःस्वार्थ मित्र होते 

निःस्वार्थ भावानं 

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रुसवा फुगव्यानं 

प्रेम जपलं होतं

जपली होती साथ 

खांद्याला खांद्याची 

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खेळ खेळली 

 आनंदानं निश्चिन्त 

खो खो लपंडाव 

कबड्डी इत्यादी सर्वच 

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ना दडपण होतं 

ना जिम्मेदारी 

 नभ सारं मोकळचं 

नवसार नवल होतं 

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पोहली मनसोक्त 

स्वप्न साजरी गोडीची 

काय तें दिस पण 

नितळ अंतःकरणी 

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सणाची रुची वेगळी 

सुट्टी असें शाळेला 

मित्र जमती मैदानी 

हर्ष खेळे मनोमनी 

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कधी फिरली वनराणी 

बागडली मिळून वनभोजनीं 

पाखरासारखे खेळली 

 निसर्ग कुशीत मस्त धुंद 

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आता आठवती एकांती 

काय तें दिस पण 

राहून राहून उजाळा करी 

निष्पाप बालपण होते खास 

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