ययाति और देवयानी (भाग-19)
ययाति और देवयानी (भाग-19)
दिन हवा में उड़ते जाते हैं। इंसान अपने दैनंदिन कार्यों में इतना व्यस्त रहता है कि उसे समय का पता ही नहीं चलता है। जयंती के जीवन में अपने स्वामी की सेवा और देवयानी की देखभाल के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। बच्चों के साथ वक्त पतंग की तरह उड़ जाता है। आचार्य शुक्र की दिनचर्या बहुत कठोर थी। प्रातः चार बजे से उनकी दिनचर्या प्रारंभ हो जाती थी। जयंती साढे तीन बजे ही बिस्तर छोड़ देती थी और देर रात तक सोने के लिए बिस्तर पर आ पाती थी। एक स्त्री अपने पति और बच्चों की सेवा में स्वयं को खपा देती है। यह बात तब तक किसी को पता नहीं चलती है जब तक कि वह स्त्री अचेत होकर गिर न पड़े।
जयंती के साथ भी ऐसा ही था। उसकी तबीयत दो चार दिन से सही नहीं थी पर वह उसकी उपेक्षा करती रही। एक दिन जब वह रसोई में भोजन बना रही थी तो अचानक उसकी आंखों के समक्ष अंधकार छा गया। वह कुछ सोचती, समझती उससे पहले ही वह वहीं पर गिर पड़ी और अचेत हो गई। उस समय रसोई में देवयानी थी। वह भागकर एक साध्वी को बुला लाई। साध्वी ने ठंडे जल के कुछ छींटे जयंती के मुख पर डाले। जयंती को चेत हो गया और उसने आंखें खोल दी। साध्वी ने उसे सहारा देकर उठाया और रसोई से कमरे में लेकर आ गई। वहां पर बिछी चारपाई पर जयंती को लिटा दिया।
देवयानी दौड़कर शुक्राचार्य के पास गई और कहने लगी "तात् ! माता आज रसोई में गिर पड़ी थी"
"क्यों, क्या हुआ उन्हें" ? शुक्राचार्य ने विस्मित होकर पूछा।
"पता नहीं तात्। वो साध्वी कह रहीं थीं कि चक्कर आ गये थे"
"अरे, ये क्या हुआ" ? कहकर शुक्राचार्य अपने कक्ष की ओर दौड़े। दो शिष्यों को राजवैद्य को लाने के लिए भेज दिया।
जैसे ही शुक्राचार्य अपने कक्ष में पहुंचे तो उन्होंने देखा कि जयंती एक चारपाई पर लेटी है और वह जोर जोर से अपना सिर दबा रही है। वह दर्द से बुरी तरह कराह रही है और उसकी दोनों आंखों से लगातार आंसू बह रहे हैं। शुक्राचार्य ने जयंती का सिर अपनी गोदी में रख लिया और उसे हल्के हल्के दबाने लगे।
"तुम्हें कुछ नहीं होगा प्रिये, कुछ भी नहीं। मैं हूं ना। यदि दैव इच्छा प्रबल है और तुम्हें कुछ हो भी जाए तो भी तुम्हें चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। मेरे पास "मृत संजीवनी विद्या" जो है। पहले मृत्यु को अपना काम कर लेने दो फिर मैं अपना चमत्कार दिखलाऊंगा। अभी तक मृत संजीवनी विद्या का चमत्कार देखने को भी नहीं मिला है। अब दुनिया देखेगी मेरे तप की शक्ति। दुनिया को पता चलेगा कि शुक्राचार्य ने कैसे मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली है ? काल की गति अनियंत्रित बताई जाती है प्रिये, लेकिन अब वह आगे और अनियंत्रित नहीं रहेगी। मैंने काल की गति नियंत्रित कर दी है, मैंने। तुम मुझसे दूर जा नहीं पाओगी जयंती। मैं यमराज से भी छीन लाऊंगा तुम्हें"। शुक्राचार्य जयंती को दिलासा देने लगे।
"स्वामी, मेरे सिर में भयंकर दर्द हो रहा है। जैसे कोई एक साथ हजारों हथौड़े मार रहा हो सिर में। जैसे घर की छत को कोई दमादम कूट रहा हो। मैं इस दर्द को सहन नहीं कर पा रही हूं नाथ। लगता है कि अब मेरा अंत समय आ गया है। स्वर्ग लोक से च्युत होने के कारण मेरी दिव्य शक्तियां समाप्त हो गई हैं वरना ऐसा नहीं होता। पर कोई बात नहीं। मुझे यही पश्चाताप रहेगा स्वामी कि मैं आपकी सेवा मृत्यु पर्यंत नहीं कर सकी। मैं आपको छोड़कर जा रही हूं स्वामी, इस धृष्टता के लिए मुझे क्षमा कर देना प्रभो। मेरी देवयानी का ध्यान रखना प्रभो। उसे मां और पिता दोनों का प्रेम देना। उसे किसी भी चीज की कभी कोई कमी नहीं होने पाए। देव, पुत्री, मेरे समीप आओ"। कहते कहते जयंती की रुलाई फूट पड़ी।
देवयानी जयंती के समीप आ गई तो जयंती ने उसके सिर पर हाथ फेरा और उसे भरपूर प्यार किया। उसके ललाट पर चुंबन किया और उसका हाथ अपने हाथों में लेकर कहा "पुत्री, अब मेरे जाने का समय हो गया है। अब तुम स्वयं का और अपने तात का ध्यान रखना। तात् को मेरी कमी महसूस नहीं होने देना पुत्री। तुम तो बहुत बुद्धिमान हो न पुत्री। मेरे जाने के पश्चात रोना नहीं। अपने तात् को भी रोने मत देना" जयंती भाव विभोर हो गई और उसने देवयानी को अपने अंक में भर लिया।
शुक्राचार्य को समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या करें ? उन्हें तो मृत्यु की चिंता थी ही नहीं इसलिए वे राग द्वेष रहित होकर बैठे रहे। शुक्राचार्य के देखते देखते जयंती ने अंतिम सांस ली। शुक्राचार्य मन ही मन कह रहे थे "कहां जाओगी प्रिये ? मृत संजीवनी विद्या से जिन्दा कर दूंगा तुम्हे"। इसलिए उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे। जयंती की हालत देखकर देवयानी फफक पड़ी।
"देव, पुत्री। रोना नहीं। तुम्हारी माता कहीं नहीं गईं हैं। वे अभी लौटकर आऐंगी। अब देखना, मैं क्या करता हूं"। शुक्राचार्य देवयानी को दिलासा देने लगे।
शुक्राचार्य भूमि पर बैठ गये और उनकी दोनों आंखें स्वतः बंद हो गई। उनके अधरों से 'मृत संजीवनी मंत्र' स्वतः निकलने लगा। वे बोलते चले गये। एक, दो, तीन, चार, पांच, दस, बीस, पचास, सौ। लेकिन कुछ नहीं हुआ। शुक्राचार्य आश्चर्य चकित रह गये। ऐसा कैसे हो सकता है ? शंकर भगवान का दिया हुआ वरदान निष्फल कैसे हो सकता है ? वे मन ही मन शंकर भगवान को याद करने लगे।
शंकर भगवान शुक्राचार्य के समक्ष प्रकट हो गये और धीर गंभीर वाणी में बोले "मैंने कहा था वत्स कि यह विद्या परमार्थ के कार्य में ही प्रयुक्त करना स्व कल्याण में नहीं। स्व कल्याण के लिए कोई मृत संजीवनी विद्या काम नहीं आएगी। इसलिए हे शुक्राचार्य, इसका आह्वान मत करो। इसका आह्वान करके इसका महत्व कम मत करो। जब कभी परमार्थ हेतु इसका आह्वान करोगे, यह अपना प्रभाव अवश्य दिखाएगी"। इतना कहकर भोलेनाथ अंतर्धान हो गये।
शुक्राचार्य तो जैसे लुट गये। वे अब तक यही समझते थे कि उन्होंने मृत्यु को जीत लिया है लेकिन मृत्यु तो छलिया निकली। कैसे विश्वासघात कर गई उनसे ? वे देखते रह गये और उनके हाथों से जयंती को घसीट कर ले गई । वे चुपचाप जयंती को जाते हुए देखते रह गए। वे कुछ नहीं कर सके। दूसरों को जीवित करने वाले शुक्राचार्य स्वयं की पत्नी को जीवित नहीं कर सके ? कौन मानेगा उनके प्रताप को ? "चमत्कार को ही नमस्कार है" कोई आज की बात तो है नहीं ? त्रैलोक्य में जो धाक जम गई थी वह मिट्टी में मिल गई प्रतीत हो रही है। दुख, क्षोभ, अपमान और अहंकार के कारण शुक्राचार्य का चेहरा विद्रूप हो गया। वे फूट फूटकर रोने लगे। अपने पिता की ये हालत देखकर नन्ही देवयानी उनकी गोदी में चढकर उनके आंसू पोंछने लगी।
इतने में राजवैद्य आ गये। शुक्राचार्य को रोते देखकर उन्हें सारी कहानी समझ में आ गई। फिर भी उन्होंने जयंती की नब्ज टटोली। कुछ नहीं था वहां। जीव शरीर को छोड़कर चला गया था। जिस शरीर को हम अपना मानकर उससे मोह करते रहे, वह तो स्वार्थी निकला। एक मिनट में ही निश्चेष्ट हो गया। बिना बताए ही। जिस जीव को कभी अपना नहीं समझा, आज महसूस हो रहा था कि सत् तो वही है। शरीर असत् है, नश्वर है जबकि आत्मा या जीव अविनाशी है, नित्य है। यह आत्मा ना किसी शस्त्र से काटी जा सकती है, ना जल से गीली होती है, ना अग्नि इसे जला सकती है और ना ही वायु इसे सुखा सकती है। यह अजर, अमर है, बस रूप परिवर्तित करती है। विवेकवान लोग इस सत्य को पहचान कर राग द्वेष छोड़कर अपने कर्तव्य कर्म करते हैं तो उन्हें भगवत प्राप्ति हो जाती है नहीं तो वे इसी संसार चक्र में भटकते रहते हैं। संसार चक्र से छूटने का सुअवसर मात्र मनुष्य जन्म में ही संभव है अन्य किसी योनि में नहीं। शुक्राचार्य जी तो नीति निपुण थे। उन्होंने तो "नीति शास्त्र" की रचना की थी इसलिए वे इस शाश्वत सत्य से अनजान तो नहीं रह सकते थे पर संभवतः वे 'मृत संजीवनी विद्या' पर अधिक विश्वास कर बैठे और इस अहंकार का परिणाम अब उनके सामने है।
अब तो 'पार्थिव देह' का अंतिम संस्कार ही करना शेष है। जयंती का समाचार सुनकर महाराज वृषपर्वा और महारानी प्रियंवदा दोनों दौड़े दौड़े आये और शुक्राचार्य को ढांढस बंधाने लगे। प्रियंवदा को उस दिन की सारी बातें याद आ गई। अभी कुछ दिन पूर्व ही तो वे दोनों सखि बनी थीं। इतनी जल्दी साथ छूट जाएगा, यह कल्पना किसने की थी ?
प्रियंवदा की आंखों से दो बूंद जल टपक पड़ा। उन्होंने देवयानी को गोदी में उठा लिया और उसे दुलार करने लगी। महाराज वृषपर्वा शुक्राचार्य को सांत्वना देने लगे। राजवैद्य जी एक कोने में चुपचाप खड़े थे और मन ही मन ईश्वर की लीला का ध्यान कर रहे थे।
संपूर्ण विधि के साथ जयंती का अंतिम संस्कार किया गया। पंचतत्वों से मिलकर बना यह शरीर पंच महाभूतों में विलीन हो गया। जीवन का यही सत्य है "आया है सो जायेगा, राजा, रंक, फकीर"। सब एक जैसे हैं इस प्रकरण में। मृत्यु किसी में भेदभाव नहीं करती है। राजा, प्रजा, अमीर, गरीब, पुरुष, स्त्री सब इसके अधीन हैं। इस सत्य से सब लोग परिचित हैं किन्तु वे विषयों, कामनाओं में इतने लिप्त हैं कि वे इस सत्य का दर्शन नहीं कर पाते हैं। जिस तरह पर्दे के पीछे की वस्तुऐं दिखाई नहीं देती हैं, उसी प्रकार भोग विलास का परदा जिनकी आंखों पर पड़ा रहता है, उन्हें भी सत्य दिखाई नहीं देता है। तत्वदर्शी मनुष्य तो वह है जो यह जानता है कि इस जगत में केवल सत् ही विद्यमान है, असत् का वास तो कहीं है ही नहीं। ऐसा तत्वदर्शी व्यक्ति ईश्वर को अति प्रिय है। ऐसे तत्वदर्शी को भगवन अपने लोक में स्थान देते हैं।
क्रमशः

