Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Classics

4  

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Classics

यशस्वी (4)

यशस्वी (4)

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अब, यशस्वी हम से निरंतर मोबाइल कॉल एवं फेसबुक में संपर्क में रहती थी। अपनी उलझनों पर चर्चा करनी हो तो मुझे कॉल/संदेश करती और डिजाइनिंग टॉपिक पर प्रिया से बात कर अपनी जानकारी बढाती थी। ऐसे ही कॉल/संदेश में जब कभी वह, अपने पापा के गिरते जाते स्वास्थ्य पर, दुःख एवं चिंता में होती तो, मैं समझाता कि उनकी उपचार-दवा कराते जाओ। उनकी सेवा-देखभाल करते जाओ। हम, अपने प्रियजन के रोगग्रस्त होने पर यही कर सकते हैं।

मैं पूछता - उपचार में पैसों की कमी तो नहीं ?

इस पर उसका आत्मविश्वास से भरा उत्तर मिलता- सर, प्रिया मेम एवं आपसे मिले मार्गदर्शन एवं ज्ञान से, मैं अपने व्यवसाय से, लगातार अधिक धन अर्जन करते जा रहीं हूँ। अतः ऐसी कोई कमी नहीं है।मैं, उसकी बात काट कहता - यह टैलेंट तुममें है। यह मेहनत तुम्हारी है। 

वह, ऐसी प्रशंसा पर हँसती। ऐसा करते हुए मेरा अभिप्राय, उसके पिछले अवसाद के स्मरण से उसे, बचाना होता था।   यूँ कोई एक-सवा वर्ष बीता था कि एक शाम यशस्वी का कॉल आया। वह रो रही थी। उसने बताया - 15 दिनों पहले, पापा पर पक्षाघात हुआ। तबसे मस्तिष्क एवं हृदय संबंधी समस्यायें लगातार बढ़ती गईं। आज अभी, पापा नहीं रहे। सुनकर मैंने तुरंत निर्णय लिया, मोबाइल पर मनोबल दिलाना कठिन था। उससे अंत्येष्टि की जानकारी ली एवं कहा - उसमें कल सवेरे, मैं सम्मिलित होऊँगा। (फिर कॉल खत्म किया था)

मुझे अपनी अति व्यस्तता में यह करना था। इस सदमे से, यशस्वी को फिर अवसाद में जाने नहीं देना था। प्रिया को बताया तो वह भी साथ चलने तैयार हुईं। मैंने अगले दिन के अपने एजेंडा स्थगित करने की सूचना, वरिष्ठ एवं मातहत अधिकारियों को दी ताकि, वे संबंधितों को अवगत करा दें।अगली सुबह हम, अंत्येष्टि में सम्मिलित हुए। मेरे स्तर के अधिकारी का वहाँ होना लोगों को अचंभित कर रहा था। जिस पर मैंने ध्यान नहीं दिया। हम रात्रि वापिसी करने वाले थे।

शाम यशस्वी अपनी एक बहिन के साथ, विश्राम गृह में हमसे मिलने आई। तब उसने कहा -सर-मेम, आपने, मेरा मार्गदर्शन नहीं किया होता तो, शायद अपनी पूर्व महत्वकाँक्षा को मैं त्याग नहीं पाती। उस बात को दो साल हुए हैं। मैं इंजीनियरिंग की महँगी पढ़ाई कर रही होती तो आज पापा के नहीं रहने पर वह अधूरी छोड़नी होती। आपके परामर्श अनुरूप, इन दो वर्षों में, मैंने पापा का व्यवसाय, अपने हाथ में लिया और उसे जिस प्रकार बढ़ा सकी हूँ उससे, मैं, हमारे परिवार पर आई इस विपत्ति के समय में, आर्थिक रूप से सक्षम हुई हूँ।

मैं टूटने से बच सकी हूँ। अब मैं पापा के बिना, माँ-बहनों की जरूरत एवं घर की आर्थिक रूप से, पूर्ति सरलता से कर सकने योग्य हूँ। इसका श्रेय आपको है। आप दोनों के आभार के लिए, मेरे पास शब्द नहीं हैं। वह चुप हुई तब मैंने कहा - यशस्वी, वैसे तो तुम इंजीनियरिंग कर रही होती तब यह संकट आता, तब भी कोई न कोई रूप से, तुम और तुम्हारे परिवार का आगे जीवन चल जाता। लेकिन उस समय तुम्हारा इंजीनियरिंग करने का विचार त्यागना अप्रिय था, आज अप्रिय नहीं रहा। अब यह निर्णय तुम्हारी उपलब्धि हुआ है।

ऐसे अवसर तुम्हारे जीवन में ही नहीं, सभी के जीवन में अनेक बार आते हैं। तब यदि अपने ईश्वर के संकेत को समझ कर, हम सही विकल्प चुनते हैं तो हम, सुखद स्थिति में होते हैं। 

ईश्वर हमें भली स्थिति में ही रखना चाहते हैं। परंतु यदि हम ईश्वर की व्यवस्था में जिदवश अपनी ही इक्छा चलाते हैं तो, अपने कष्ट बढ़ा लेते हैं। 

तुम्हारा नाम एवं व्यवसाय अब चल निकला है। अपनी शॉप को तुम, बुटीक के रूप में परिवर्तित करो। अब समय आया है कि अपनी (उसकी बहन की ओर इशारा करते हुए) इस बहन या माँ को पापा की जगह अपने व्यवसाय में जोड़ो। (फिर प्रश्न किया) तुम समझ रही हो मैं, क्या कहना चाह रहा हूँ ?उसने कहा - जी सर!शायद यशस्वी समझ गई थी कि उसके विवाह होने की परिस्थिति में, मैं उसके परिवार को तैयार रहने का उपाय कर रहा था। फिर, दोनों बहनें चली गईं थीं।

वापिसी के समय मैं प्रिया से कह रहा था - अपनी प्रतिष्ठा, आदर, (महत्वकाँक्षा अनुरूप) उपलब्धियों तथा अपने विभागीय एवं पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति से, हमें प्रसन्नता मिलती ही है।

मगर मैं, अनुभव कर रहा हूँ कि निरपेक्ष एवं निःस्वार्थ किया परोपकार, हमारा मानवता के प्रति उत्तरदायित्व होता है। इसे हम निभाते हैं तब का मिला सुख, सबसे बड़ा जीवन सुख होता है।     इसके बाद कुछ ही दिनों में यशस्वी ने संदेशों के माध्यम से अवगत कराया था कि उसने, पिछली जगह बदल कर नई एवं बड़ी जगह किराये पर ले ली है। और अपनी शॉप को टेलरिंग से बुटीक में परिवर्तित कर लिया है।

माँ का नाम सीता होने से बुटीक का नाम "यशस्वी सीता बुटीक" रख लिया है। मैंने इनके लिए, यशस्वी को शुभकामनायें एवं बधाई दी थीं।

एक दिन यशस्वी ने बताया कि पापा के शॉप पर 15 वर्षों से रहा, सिलाई सहायक जिसे यशस्वी, चाचू कहती थी, उसकी दृष्टि यशस्वी को गंदी लगती थी। पहले यशस्वी, उसे उसकी समस्या मान कर अनदेखा कर देती थी। इधर पापा के नहीं रहने के बाद, उसकी कुचेष्टायें बढ़ने लगीं थीं। वह किसी-किसी बहाने से, यशस्वी के शरीर को छूने लगा था। अतः उसे, यशस्वी ने अब काम से हटा दिया है। वैसे भी बुटीक में ग्राहक, लड़कियाँ/महिलायें होती हैं। अतः ऐसे गंदी दृष्टि वाले का होना, व्यवसायिक हितों में नहीं होता है। यशस्वी ने उसके जगह एक सिलाई सहायिका को स्थान दे दिया है।

इसे सुन मुझे विचार आया कि जीवन है तो, नित नई चुनौती पेश करता ही है। अब यशस्वी का घर एवं व्यवसाय, (अपने) पुरुष सदस्य विहीन हुआ था। ऐसे परिवार और व्यवसाय सामान्यतः कुछ धूर्त तथा अपराधी किस्म के पुरुषों के लिए सॉफ्ट टारगेट होते ही है।


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